क्या जातिवाद की कीमत चुका रहा बिहार?, जनगणना राजनीति की नई फसल!    

क्या जातिवाद की कीमत चुका रहा बिहार?, जनगणना राजनीति की नई फसल!    

बिहार में हुए जाति जनगणना का आंकड़ा जारी किया जा चुका है। यह आंकड़ा महात्मा गांधी की जयंती पर नीतीश कुमार ने जारी किया। ऐसे में यह सवाल उठने लगा है कि आने वाले समय में इसका बिहार और उसकी राजनीति पर क्या असर होगा। देश के सबसे पिछड़े राज्यों में शुमार बिहार के लोगों पर जाति जनगणना का क्या प्रभाव पड़ेगा। क्या जाति जनगणना से बिहार को  बदहाली से छुटकारा मिलेगा ? क्या बिहार के लोगों का दूसरे राज्यों में पलायन थमेगा ? क्या लालू यादव, नीतीश कुमार या अन्य नेता इस पर कोई प्लान बनाया ? जात पात की राजनीति करने वाले नेताओं का जनता के सरोकार से कुछ लेना देना है कि नहीं ?

जनगणना के अनुसार बिहार की कुल आबादी 13 करोड़ से अधिक है। इसमें 63 प्रतिशत जनसंख्या ओबीसी और अन्य पिछड़ी जातियों की है। ये जातियां पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियों में बंटी हुई हैं। रिपोर्ट के अनुसार, राज्य में 27 प्रतिशत पिछड़ी आबादी, 36 प्रतिशत अति पिछड़ी हैं। सामान्य 15 प्रतिशत,एससी 19 प्रतिशत  और एसटी 1.68 प्रतिशत है। पिछड़ी जातियों में शामिल यादव 14 प्रतिशत हैं। अगर जनगणना के अनुसार हिन्दुओं की जनसंख्या देंखे तो बिहार में 82 प्रतिशत हिन्दू हैं। जबकि 17.7 प्रतिशत मुसलमानों की संख्या सामने आई है। हालांकि, कुछ राजनीति दलों ने दावा किया है कि इस सर्वेक्षण में कई खामियां  भी है। बहरहाल, हम मुख्य मुद्दे पर आते हैं।

दरअसल, आजादी के 70 साल बाद भी बिहार बदहाल है। देश के अन्य राज्यों की अपेक्षा  बिहार का विकास न के बराबर हुआ है। जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि बिहार की राजनीति में जातिवाद की राजनीति हावी रहेगी और इसका व्यापक असर भी देखने को मिल सकता है। ऐसा नहीं है कि देश के अन्य राज्यों में जातिवाद की राजनीति का असर नहीं है।  लेकिन बिहार में ध्रुवीकरण और जातिगत भावनाओं का असर सबसे ज्यादा है। कहा जा सकता है कि बिहार में जातिवाद की भावना इतनी प्रबल है कि इसका विकास पर ख़ासा असर पड़ा है। इसी का परिणाम है कि बिहार हर स्तर पर लगातार पिछड़ता चला गया। लेकिन बिहार की राजनीति जातिवाद के इर्द गिर्द घूमती रही है।

एक आंकड़े के अनुसार, बिहार में लगभग 18 राजनीति दल है। इसमें कई दल ऐसे हैं जो जाति धर्म के नाम पर सक्रिय हैं। ये दल शोषित और वंचितों को हक़ और न्याय दिलाने के नाम पर अपनी राजनीति चमकाते रहें हैं। नीतीश कुमार ने जो सर्वेक्षण कराया। उसके बारे में दलील देते रहे कि सर्वे के बाद पिछड़ों, अति पिछड़ों या दलितों के विकास में मदद मिलेगी। क्या ऐसा हो पायेगा यह समय के गर्भ में है। आजादी के बाद बिहार की सत्ता पर कांग्रेस, लालू यादव और नीतीश कुमार कब्जा जमाए रहे हैं। लेकिन, बिहार की तक़दीर और तस्वीर नहीं बदली। जबकि ये लोग शोषितों और वंचितों को  न्याय दिलाने का आश्वासन देकर सत्ता में आये।

ये नेता बार बार सत्ता पर काबिज होते रहे और अपने शब्दों के जाल से वंचितों ,शोषितों और पिछड़ों को न्याय दिलाने की बात किये, लेकिन, धरातल पर ऐसा कुछ नहीं हुआ, बिहार के लोग उसी जातिवाद में उलझे रहे, जिसमें उनके नेता फंसाये रखा। बिहार के लोग अपनी जाति पहचान से बाहर नहीं निकले और न ही निकलने की कोशिश की। इसका जीता जगता उदाहरण बिहार में लालू यादव का राजनीति करियर है। जो पिछडो की राजनीति कर अपने लिए सुख सुविधा बनाये, लेकिन बिहार के लोगों को गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी के दलदल से निकालने के लिए कभी कोशिश नहीं की।

एक बार फिर यही राजनीति दल जाति जनगणना के बहाने राजनीति की अब एक नई फसल काटने की तैयारी में है। कहा जा सकता है कि बिहार में गांव गांव जाति भावनाएं है।  लोग इसमें उलझे हुए है। अब जाति जनगणना की संख्या पर जाति भावना उबाल सकती है। यह भावना गांव देहात में ज्यादा देखने को मिलेगी। जो बिहार के लिए अच्छी स्थिति नहीं है। अगर बिहार के विकास पर बात करें तो अन्य राज्यों की अपेक्षा यहां सबसे ख़राब है। उसी तरह कानून व्यवस्था भी बदहाल है। शिक्षा के मामले में भी बिहार सबसे निचले पायदान पर है। बिहार की जनता हर बुनियादी चीजें से दूर है, लेकिन उनमें जाति के प्रति गहरा लगावा है जिसका राजनीति दल लाभ उठाते रहे हैं।

राजनीति दल, शिक्षा, बेरोजगारी, मेडिकल पर बार करने के बजाय जाति समीकरण पर ज्यादा जोर देते रहे है। 70 साल से यही चल रहा है। चुनाव का मुद्दा विकास नहीं बल्कि जात पात होता है। भले बिहार के लोग विकास चाहते हो, लेकिन चुनाव में मतदाताओं पर जातिवाद सिर चढ़कर बोलता है। सवाल यही है कि जाति जनगणना कराने वाले नेता बिहार में विकास की बात कब करेंगे। बेरोजगारी, शिक्षा,मेडिकल जैसी सुविधाताओं में बिहार को नंबर वन की पायदान पर कब लाएंगे। क्या बिहार के लोग जात पात से ऊपर उठकर एक नागरिक बनेंगे या नेता कब राज्य के हित अपने स्वार्थ को छोड़ेंगे ? ये वे सवाल हैं जो बार बार पूछे जाने चाहिए।

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