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Friday, September 20, 2024
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सत्यशोधक समाज बना पिछड़ी जाती के लिए आंदोलन का स्रोत

सत्यसोधक समाज का उद्देश्य शूद्र एवं अस्पृश्य जाति के लोगों को विमुक्त करना था।

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जातिप्रथा, पुरोहितवाद, स्त्री- पुरुष, असमानता और अंधविश्वास के साथ ही समाज में व्याप्त आर्थिक, सामाजिक, एवं सांस्कृतिक भ्रष्टाचार के विरुद्ध सामाजिक परिवर्तन की जरूरत भारत में सताब्दियों से रही है। इस लक्ष्य को लेकर आधुनिक युग में सार्थक, सशक्त और काफी हद तक सफल आंदोलन चलाने का श्रेय सर्वप्रथम ज्योतिराव फुले को जाता है। उन्हें ज्योतिराव फुले या ज्योतिबा फुले के नाम से भी जाना जाता है। व्यक्ति की स्वतंत्रता और समानता के लिए उनके चलाए आंदोलन के कारण उन्हें आधुनिक भारत की परीकल्पना का पहला रचनाकार भी माना जाता है।

ज्योतिबा फुले ने शूद्र एवं अस्पृश्य जाति के लोगों को उत्पीङन से मुक्ति दिलाने के लिए 24 सितम्बर 1873 ई. को पुणे में सत्यशोधक समाज की स्थापना की। सत्यशोधक समाज का तात्पर्य है कि सत्य की खोज करने वाला समाज। ज्योतिबा फुले इसके अध्यक्ष थे तथा उनकी पत्नी सावित्री बाई फुले महिला विभाग की प्रमुख बनी थी। सत्यशोधक समाज एक ब्राह्मण विरोधी संस्था थी। इस आंदोलन का उद्देश्य विद्यमान सामाजिक ढांचे में बदलाव लाने के साथ-साथ जाती, कर्मकांड, मूर्ति पूजा और धर्म शास्त्रों का बहिष्कार भी करना था। निम्न जाती के लोगों और स्त्रियों को शिक्षित कर उन्हें अपने अधिकारों के प्रति जागरूक लाने के प्रयास में इस आंदोलन ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

इस संस्था का महत्वपूर्ण उद्देश्य पिछङी जातियों को शोषण से मुक्त कराना था। ज्योतिबा फुले ने मूर्ति-पूजा का विरोध किया और चतुर्वर्णीय जाति व्यवस्था को ठुकरा दिया। इस संस्था ने समाज में तर्कसंगत विचारों को फैलाया और शैक्षणिक और धार्मिक विधाओं के रूप में उच्च-वर्ग को स्वीकार करने से इन्कार कर दिया। सत्यशोधक समाज पूरी तरह से गैर-राजनीतिक संगठन था। सत्यशोधक समाज की मान्यता थी कि भक्त और भगवान के बीच किसी बिचौलिये की कोई आवश्यकता नहीं है। बिचौलिये की तरफ से लांघी गई धार्मिक दासता को खत्म करना और सभी जातियों के स्त्री-पुरुषों को शिक्षा उपलब्ध कराना ही सत्यशोधक समाज का उद्देश्य था।

इसी समय ज्योतिबा फुले ने 1873 ई. को ’गुलामगिरी’ नामक पुस्तक लिखी। इस पुस्तक के माध्यम से उन्होंने ब्राह्मणों के प्रभुत्व को चुनौति दी एवं पुरोहित वर्ग को समाज का शोषक बताया। इनकी ये पुस्तक आज भी समाज में हो रहे भेदभाव पर खरी उतरती है। जनवरी 1877 ई. में ज्योतिबा फुले ने ’दीनबन्धु’ नामक एक समाचार-पत्र प्रकाशित किया। उन्होंने किसानों और श्रमिकों की संतोष जनक स्थिति और उनकी उपयुक्त मांगों के लिए उन्हें एकजुट होकर संघर्ष करने के लिए प्रेरित, शिक्षित और संगठित किया। सत्यशोधक समाज के आंदोलन में दीनबंधु समाचार-पत्र ने भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। ज्योतिबा के प्रयासों से उन दिनों किसानों और श्रमिकों के हितों की रक्षा और सत्य शोधक समाज के प्रचार के लिए ’दीनमित्र’ और ’किसानों का हिमायती’ नामक समाचार-पत्र प्रकाशित किये गये। इसके फलस्वरूप एक ऐसी चेतना का विस्तार हुआ हुआ, जो आगे चलकर देश के विभिन्न भागों में जातिवाद विरोधी आंदोलनों की प्रेरणा बना।

शूद्रों और अतिशूद्रों का ज्योतिबा फुले पर भरोसा था। इसकी सबसे बड़ी वजह शिक्षा के क्षेत्र में किए गए उनके काम थे। इसलिए सत्य शोधक समाज को उन्होंने हाथों-हाथ लिया। कुछ ही वर्षों में उसकी शाखाएं मुंबई और पुणे के शहरी, कस्बाई एवं ग्रामीण क्षेत्रों में खुलने लगीं। एक दशक के भीतर वह संपूर्ण महाराष्ट्र में पैठ जमा चुके था। सत्य शोधक समाज के माध्यम से फुले ने शूद्रों और अतिशूद्रों को अपने विकास और मान-प्रतिष्ठा अर्जित करने का जो रास्ता करीब 149 वर्ष पहले दिखाया था, सामाजिक न्याय के संदर्भ में आज भी वह उतना ही जरूरी और प्रासंगिक है।

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