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Saturday, November 15, 2025
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सोहराब मोदी: संवादों के सम्राट, जिनकी फिल्मों में इतिहास जीवंत था!

जब सोहराब मोदी की बात होती है तो उनके बारे में बात बिन उस किस्से के खत्म नहीं की जा सकती, जब इनकी फिल्म के लिए नेत्रहीन भी थिएटर चले आते थे। 

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अपनी गूंजती हुई आवाज और नाटकीय अभिनय शैली के लिए मशहूर मोदी सोहराब सिर्फ अभिनेता नहीं थे, बल्कि भारतीय सिनेमा के पहले सच्चे ऑट्यूर (निर्देशक) थे। 2 नवंबर को सोहराब मोदी की जयंती पर उन्हें याद करना भारतीय फिल्म इतिहास के उस दौर को याद करना है जब पर्दे पर संवाद गूंजते थे, तलवारें टकराती थीं, और इतिहास बोलता था।

वे एक ऐसे फिल्मकार थे, जिन्होंने रंगमंच की गरिमा को पर्दे पर उतारा और सामाजिक व ऐतिहासिक चेतना को सिनेमा के जरिए जीवंत किया। इसके साथ ही, उन्होंने अपनी फिल्मों के जरिए भारतीयों को सामाजिक और राष्ट्रीय सरोकारों के प्रति प्रेरित किया।

2 नवंबर 1897 को बॉम्बे (अब मुंबई) में एक पारसी परिवार में जन्मे सोहराब मोदी भाई-बहनों में 11वें नंबर के थे। छोटी उम्र में अपनी मां को खो चुके सोहराब मोदी का प्रारंभिक जीवन रामपुर में बीता। यहीं उन्हें हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं में निपुणता हासिल हुई। बचपन में उर्दू सीखा और भाषा पर उनकी पकड़ ने आगे चलकर उन्हें संवाद शैली दी।

समाचार लेखों में जिक्र मिलता है कि सोहराब मोदी का फिल्मों की ओर रुझान स्कूल के प्रिंसिपल की एक सलाह के बाद बढ़ा था। उन्होंने अपने स्कूल के प्रिंसिपल से पूछा था कि उन्हें क्या बनना चाहिए। उनके स्कूल प्रिंसिपल ने उनकी गूंजती आवाज सुनकर कहा था कि उन्हें अभिनेता या राजनेता बनना चाहिए। शायद तभी नियति ने उन्हें मंच और कैमरे के लिए चुना था।

उनके भाई की एक ट्रैवलिंग सिनेमा कंपनी थी। महज 16 साल की उम्र में सोहराब ने फिल्मों से पहला परिचय यहीं से लिया। ‘आलम आरा’ (1931) के साथ जब भारतीय सिनेमा में ध्वनि का युग आया तो मोदी ने भी समय की मांग समझी और अपने भाई के साथ स्टेज फिल्म कंपनी बनाई।

उन्होंने एक नाटक मंडली की स्थापना की जो उर्दू में शेक्सपियर के नाटकों का मंचन किया करती थी। इनमें ‘खून का खून’ (1935) और ‘सैद-ए-हवस’ (1936) शामिल हैं।

उनकी अपनी पहली फिल्म, ‘आत्मतरंग’ (1937), जो स्वामी रामकृष्ण परमहंस की शिक्षाओं से प्रेरित थी, लेकिन शुरुआत में बॉक्स ऑफिस पर असफल रही। इस असफलता के बावजूद मोदी का दृढ़ निश्चय तब सामने आया जब उन्हें बॉम्बे उच्च न्यायालय के चार न्यायाधीशों से प्रोत्साहन मिला, जिन्होंने उनके काम की प्रशंसा की।

उन्होंने सामाजिक रूप से प्रासंगिक फिल्में बनाना जारी रखा। ‘जेलर’ (1938), जिसे बाद में 1958 में फिर से बनाया गया था और ‘मीठा जहर’ (1938), शराब की लत पर आधारित थी, जबकि ‘भरोसा’ (1940) अवैध संबंधों और अनाचार जैसे विषयों पर आधारित फिल्म थी।

इसके बाद उन्होंने इतिहास को जीवंत करते हुए फिल्मों की ओर रुख किया, जिसमें ‘पुकार’ (1939), ‘सिकंदर’ (1941) और ‘पृथ्वीवल्लभ’ (1943) जैसी फिल्में शामिल थीं। फिर उन्होंने ‘पृथ्वी वल्लभ’ (1943) और भारत की पहली टेक्नीकलर फिल्म ‘झांसी की रानी’ (1952) जैसी फिल्मों में काम किया।

अगले कुछ सालों में उन्होंने ‘मिर्जा गालिब’ (1954) बनाई, जिसमें उर्दू शायरी की दुनिया को पर्दे पर जिंदा कर दिया गया। सुरैया की गायकी और तालत महमूद की आवाज ने इसे अमर बना दिया। इस फिल्म ने राष्ट्रीय पुरस्कार जीता।

मोदी ने हर विषय को पर्दे पर उतारा, जिसमें ‘नरसिंह अवतार’ (1949) जैसी पौराणिक, ‘कुंदन’ (1955) जैसी सामाजिक और ‘नौशेरवान-ए-आदिल’ (1957) जैसी कहानियां शामिल थीं।

जब सोहराब मोदी की बात होती है तो उनके बारे में बात बिन उस किस्से के खत्म नहीं की जा सकती, जब इनकी फिल्म के लिए नेत्रहीन भी थिएटर चले आते थे।

समाचार लेखों में उल्लेख मिलता है कि 1950 में सोहराब मोदी की फिल्म ‘शीश महल’ आई थी, जिसे थिएटर में दिखाया जा रहा था। उस थिएटर में खुद सोहराब मोदी मौजूद थे, लेकिन उनकी नजर एक व्यक्ति पर पड़ी थी, जो आंख बंद करके वहां बैठा था।

इससे खुद मोदी भी हैरान थे और फिल्म के बारे में सोचने लगे, लेकिन बाद में उन्हें पता चला कि वह व्यक्ति आंख बंद करके नहीं बैठा था, बल्कि वह नेत्रहीन था, जो थिएटर में सोहराब मोदी की आवाज और संवाद सुनने के लिए आया था।

अपने जीवन के आखिरी सालों में भी मोदी सिनेमा के प्रति उतने ही समर्पित रहे। उनकी आखिरी झलक 1983 की फिल्म ‘रजिया सुल्तान’ में देखी गई। 1980 में उन्हें दादासाहेब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

इसी से समझा जा सकता है कि सोहराब मोदी की विरासत न सिर्फ उनकी फिल्मों के माध्यम से, बल्कि इतिहास को बयां करने और सामाजिक परिवर्तन लाने की सिनेमा की परिवर्तनकारी शक्ति के प्रमाण के रूप में भी कायम है, जिसने भारतीय सांस्कृतिक इतिहास पर एक अमिट छाप छोड़ी।

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