न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा के आधिकारिक आवास पर मार्च में हुई आगजनी की घटना और बेहिसाब नकदी मिलने के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा कराई गई इन-हाउस जांच को लेकर उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने गंभीर सवाल उठाए हैं। उन्होंने इस जांच को संवैधानिक या कानूनी रूप से अमान्य बताते हुए कहा कि इसकी कोई प्रासंगिकता नहीं है। धनखड़ ने यह टिप्पणी सोमवार (19 मई) को वरिष्ठ अधिवक्ता विजय हंसारिया द्वारा संपादित पुस्तक ‘द कॉन्स्टिट्यूशन वी अडॉप्टेड’ के विमोचन समारोह में की।
धनखड़ ने कहा, “लोग बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं… पैसे का स्रोत, उसका उद्देश्य, क्या इसने न्यायिक प्रणाली को प्रदूषित किया? बड़े शार्क कौन हैं? हमें पता लगाने की जरूरत है।” उन्होंने स्पष्ट किया कि अब तक इस मामले में कोई एफआईआर न दर्ज होना “अरबों लोगों के मन को झकझोरने वाली” बात है।
उपराष्ट्रपति ने आगे कहा, “पहले ही दो महीने बीत चुके हैं… जांच (तेजी से की जानी) आवश्यक है। एफआईआर दर्ज करने के मामले में भी यही बात है।” उन्होंने जांच की गुणवत्ता और गहराई पर बल देते हुए कहा, “वैज्ञानिक, फोरेंसिक, विशेषज्ञ, गहन जांच की जरूरत है जो सब कुछ उजागर करे और कुछ भी छिपा न रहे। सच्चाई को सामने लाने की जरूरत है।”
मार्च में जब यह घटना घटी, तब तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ के आदेश पर जस्टिस संजीव खन्ना की अध्यक्षता में तीन जजों की एक आंतरिक समिति गठित की गई थी, जिसने बाद में अपनी रिपोर्ट में आरोपों को “विश्वसनीय” पाया था। इसके बाद न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा को दिल्ली उच्च न्यायालय से इलाहाबाद उच्च न्यायालय स्थानांतरित कर दिया गया था। हालांकि, उन्होंने सभी आरोपों से इनकार किया है।
धनखड़ ने इन-हाउस जांच की प्रक्रिया को खारिज करते हुए कहा, “वे एक ऐसी जांच में शामिल थे जिसका कोई संवैधानिक आधार या कानूनी औचित्य नहीं है, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह अप्रासंगिक होगी।” उन्होंने यह भी सवाल किया, “क्या इस देश में हम उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के प्रशासनिक कार्य, उच्च न्यायालय के न्यायिक कार्य की कीमत पर इतना समय निवेश करने का जोखिम उठा सकते हैं?”
उपराष्ट्रपति ने 1991 के के. वीरास्वामी फैसले को भी पुनः विचार करने की मांग की, जिसके अनुसार न्यायाधीशों पर मुकदमा चलाने के लिए सरकार की पूर्व मंजूरी आवश्यक है। उन्होंने कहा, “इसने न्यायपालिका के चारों ओर दंड से मुक्ति का ढांचा खड़ा कर दिया है।”
धनखड़ ने अपने भाषण में लोकतंत्र की बुनियाद पर भी टिप्पणी की। उन्होंने कहा, “लोकतंत्र को मुख्य रूप से तीन पहलुओं – अभिव्यक्ति, संवाद और जवाबदेही से परिभाषित किया जाना चाहिए। अगर अभिव्यक्ति को दबाया जाता है, तो लोकतंत्र कमज़ोर होता है।” उन्होंने चेताया कि अगर जांच नहीं होती, तो संस्थाएं “अपने आप पर शासन करने लगती हैं”, जो लोकतंत्र के लिए खतरनाक है।
उन्होंने स्पष्ट किया, “मैं ऐसा कुछ भी नहीं करूंगा जिससे दूर-दूर तक न्यायपालिका की गरिमा से समझौता हो।” लेकिन साथ ही यह भी जोड़ा कि “पूरी सच्चाई सामने आनी चाहिए”, क्योंकि, “पूरा देश चिंतित था। मार्च की रात को एक घटना घटी। 1.4 बिलियन के देश को एक हफ़्ते बाद तक इसके बारे में पता नहीं चला। ज़रा सोचिए कि ऐसी कितनी ही घटनाएँ हुई होंगी जिनके बारे में हमें पता नहीं है!”
पूर्व सीजेआई संजीव खन्ना की पारदर्शिता की प्रशंसा करते हुए उन्होंने कहा, “(पूर्व) सीजेआई खन्ना ने आंशिक रूप से (न्यायपालिका में) विश्वास बहाल किया है, जब उन्होंने सार्वजनिक डोमेन में ऐसे दस्तावेज रखे, जिनके बारे में लोगों को लगता था कि उन्हें कभी नहीं दिखाए जाएँगे।”
अंत में, रविवार (18 मई)को महाराष्ट्र दौरे के दौरान मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई द्वारा व्यक्त की गई प्रोटोकॉल उल्लंघन की चिंताओं पर सहमति जताते हुए उपराष्ट्रपति ने कहा, “हमें प्रोटोकॉल में विश्वास रखना चाहिए… जब उन्होंने यह संकेत दिया, तो यह व्यक्तिगत नहीं था। यह उनके पद के लिए था। और मुझे यकीन है कि यह बात सभी को ध्यान में रखनी चाहिए।”
यह पूरा घटनाक्रम न्यायपालिका की पारदर्शिता, जवाबदेही और संवैधानिक प्रक्रिया को लेकर देश में एक गंभीर बहस को जन्म दे चुका है। उपराष्ट्रपति के इस खुलासे ने निश्चित रूप से दबे हुए सवालों को एक बार फिर केंद्र में ला दिया है।
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