यूपी बिहार की राजनीति हमेशा चर्चा में रहती है। इसकी वजह यहां की राजनीति में जातियों का घालमेल होना है। यूपी बिहार की राजनीति, जाति समीकरण से तय होती है। यही वजह है कि उत्तर प्रदेश की राजनीति एक बार फिर गरमाई हुई है। रामचरित मानस विवाद के बीच जिस तरह से राज्य की राजनीति ने करवट बदली है उससे साफ़ है कि आगामी लोकसभा चुनाव में जाति गुणा गणित पर ही जीत हार तय होगी। इससे पहले सभी राजनीति दल अपना जातीय समीकरण सेट करने में लगे हुए हैं।
वर्तमान में अखिलेश यादव की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की खूब चर्चा हो रही है। राष्ट्रीय कार्यकारिणी में स्वामी प्रसाद मौर्य को राष्ट्रीय महासचिव बनाये जाने पर बहस जारी है। सबसे बड़ी बात यह है कि इस कार्यकारिणी में सवर्णो को किनारे लगा दिया गया है। ऐसे में कई तरह के सवाल उठाये जा रहे है। लोग पूछ रहे हैं कि क्या समाजवादी पार्टी में नेताओं की कमी है ? जो मौर्य को समाजवादी पार्टी में आये एक साल भी नहीं हुए और उनको अखिलेश यादव ने बड़ी जिम्मेदारी दे दी। यह भी पूछा जा रहा है कि शिवपाल यादव के समक्ष मौर्य को क्यों पद दिया गया है जबकि स्वामी प्रसाद मौर्य 2022 के विधानसभा चुनाव में अपनी सीट पर हार गए थे। उन्हें बीजेपी नेता ने हराया था।
बीजेपी छोड़कर सपा में शामिल होने वाले मौर्य का अब सपा में मान सम्मान हो रहा है। हिन्दुओं के धार्मिक ग्रंथ रामचरित मानस पर सवाल उठाने पर बीजेपी और संत समाज में रोष है। वहीं सपा ने उन्हें महासचिव बनाकर हिन्दुओं का अपमान किया है। मौर्य के बयान पर साधु संतों ने नाराजगी जताई थी। सवाल यह भी पूछा जा रहा है कि सपा की मौर्य पर इतनी मेहरबानी क्यों ? क्या जाति समीकरण की वजह से अखिलेश यादव ने अपना आशीर्वाद उन्हें दिया है।
बताया जा रहा है कि यूपी में यादव जाति के बाद मौर्य समाज सबसे ज्यादा है। मौर्य पिछड़ी जाति यानी ओबीसी से आते हैं। यूपी के कई जिलों में मौर्य का बोलबाला है। मौर्य जब बसपा में थे तब वे विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष की जिम्मेदारी संभाल चुके हैं। माना जा रहा है कि इन सब बातों को देखते हुए ही अखिलेश यादव ने मौर्य का कद सपा में बढ़ाया है। साथ ही मौर्य अनुभवी नेता है।
माना जा रहा है कि मौर्य को अखिलेश यादव आगे कर जाति कार्ड खेला है, उसे अंजाम तक पहुंचाने की कोशिश है। लेकिन क्या अखिलेश यादव स्वामी प्रसाद मौर्य और जाति की तिकड़ी से सपा की चुनावी नैया पार लगा पाएंगे। यह बड़ा सवाल है, क्योकि सपा ने विधानसभा चुनाव में भी दलित, पिछड़ा का कार्ड खेला था, लेकिन खास कामयाबी नहीं मिली थी। ऐसे में माना जा रहा है कि बीजेपी के राष्ट्रवाद के जयघोष में अखिलेश यादव और मौर्य का जाति कार्ड चलना मुश्किल है।
दूसरी बात यह है कि चौसठ सदस्यों वाली कार्यकारिणी में 14 लोगों को राष्ट्रीय महासचिव बनाया गया है। इनमें आधा दर्जन ऐसे लोग हैं जो हाल फ़िलहाल सपा में शामिल हुए हैं। जिनका बैकग्राउंड बसपा है। ऐसे में इनका सपा के विचारधारा से कोई लेना देना नहीं है। लेकिन उन्हें बड़ी जिम्मेदारी देना सभी को चौंकाया है।
सबसे बड़ी बात यह है कि प्रमुख महासचिव का पद सृजित किया गया है। जिस पर अखिलेश यादव ने अपने चाचा रामगोपाल यादव को बैठाया है। वहीं, शिवपाल यादव को राष्ट्रीय महासचिव बनाया गया है। जो स्वामी प्रसाद मौर्य के समक्ष है। बता दें कि शिवपाल यादव अखिलेश यादव से नाराज होकर अपनी अलग पार्टी बना ली थी। मुलायम सिंह यादव के निधन के बाद उनकी घर वापसी हुई थी। जगजाहिर है कि रामगोपाल यादव और शिवपाल यादव के संबंध अच्छे नहीं हैं।
मुलायम सिंह यादव के समय में शिवपाल यादव की तूती बोलती थी। अब रामगोपाल यादव अखिलेश यादव के राज में रामगोपाल यादव का बोलबाला है। खबर यह भी है कि शिवपाल यादव अपने पद से नाखुश हैं। ऐसे में देखना होगा कि रामगोपाल यादव और शिवपाल यादव में बनती है की नहीं। अखिलेश यादव ने अपने नई कार्यकारिणी 85 प्रतिशत दलित और पिछड़ों को पद से नवाजा है। जबकि ठाकुर समुदाय से एक भी नेता को कार्यकारिणी में जगह नहीं मिली है। इसलिए मना जा रहा है कि अखिलेश यादव ने यादव मुस्लिम के बाद दलित और पिछड़ा समुदाय को साधने में जुटे हुए हैं। इस फार्मूले से समझा जा सकता है कि सपा की आगे की रणनीति क्या है।
इसके अलावा अखिलेश यादव ने अपने कार्यकारिणी राजभर, कुर्मी,जाट निषाद,मुस्लिम और पासी समुदाय को भी जगह दी है। ये सभी समुदाय पिछड़े वर्ग से आते हैं। माना जा रहा है कि अखिलेश यादव बीजेपी की राष्ट्रवाद की काट के लिए जातिवाद का कार्ड खेला है। सपा की पिछली कार्यकारिणी में 55 सदस्य थे। लेकिन इस बार नौ सदस्यों को बढ़ाया गया है। पिछली कार्यकारिणी में सात यादव, आठ मुस्लिम, तीन ब्राह्मण ,तीन कुर्मी, पांच दलित और 11 अन्य पिछड़ा वर्ग के लोग शामिल थे।
सपा की नई कार्यकारिणी में दस यादवों को शामिल किया गया है। जिसमें से छह पारिवार के सदस्य ही है। कहा जा रहा है कि अखिलेश यादव ने परिवार को भी नई कार्यकारिणी के तहत साधने की कोशिश की गई है। पांच महिलाओं को भी कार्यकारिणी में जगह दी गई है। हालांकि शिवपाल यादव के किसी भी करीबी को इसमें शामिल नहीं किया गया है। उनके बेटे को भी कार्यकारिणी से दूर ही रखा गया है।
इस कार्यकारिणी में राम अचल राजभर का नाम चौंकाता है। अखिलेश यादव राम अचल राजभर को महासचिव बनाकर राजभर समाज को साधने की कोशिश की गई है। लेकिन पहले से ही ओमप्रकाश राजभर अपनी पार्टी सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के जरिये राजभर समाज में पैठ बनाये रखने का दावा करते हैं। जिनका बोलबाला पूर्वांचल में है। जो सपा गठबंधन से अलग हो गए हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या रामअचल पर अखिलेश का खेला गया दांव कामयाब होगा। या बस केवल तुक्का है।
ये भी पढ़ें