यूनिफ़ार्म सिविल कोड इस मुददें को लेकर जो सबसे बड़ी खबर है वो ये है कि जब से सरकार ने इस मुददें पर फिर से काम करना शुरू किया है। और जनता की राय मांगी है। जो जनता को 30 दिनों के अंदर देनी है। उसके बाद आज इस मुददें पर ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने एक बहुत बड़ा बयान दे दिया है। इसमें उसने कहा कि सरकार समान नागरिक संहिता को लेकर आ सकती है, लेकिन उससे पहले मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड से इसके बारे में चर्चा करनी पड़ेगी। उसके साथ विचार विमर्श करना चाहिए। और इसी बोर्ड ने ये भी कहा है कि लॉ कमीशन ऑफ इंडिया ने इस मुददें पर राय देने के लिए जो 30 दिन का समय दिया है। वो समय बहुत ही कम है और इस समय अवधी को बढ़ाया जाना चाहिए। और सभी प्रतिनिधियों और मुस्लिम संगठनों से इस पर पहले विचार विमर्श करना चाहिए।
भारत देश में लोकतंत्र है, और कोई भी कदम कोई भी नया कानून चर्चा के बाद ही बनाना चाहिए। तो सरकार को इनसे चर्चा और विचार विमर्श तो जरूर करना चाहिए। और फैसला भी वो होना चाहिए जो भारत देश के हित में हो। भारत में दो तरह के लॉ है एक क्रिमिनल और दूसरा सिविल लॉ। क्रिमिनल लॉ सभी धर्मों के लोगों के लिए समान है। क्रिमिनल लॉ, अपराध के बारे में होता है, वो सभी के लिए एकसमान है। क्यूंकी हत्या और दूसरे अपराधों में जितनी सजा हिन्दू धर्म के व्यक्ति को होती है उतनी ही सजा दूसरे धर्म के व्यक्ति को भी होती है।
लेकिन सिविल लॉ के मामले में स्थिति काफी अलग है। सिविल लॉ को आप आसान भाषा में फैमिली लॉ भी कह सकते है। यानी ऐसे मामले जो व्यक्ति बनाम व्यक्ति के बीच होते है। उदाहरण के लिए शादी, ब्याह और विवाह का मामला व्यक्ति बनाम व्यक्ति के बीच होता है। जो सिविल लॉ के दायरे में आते है। इसके अलावा शादी के बाद होनेवाला तलाक, तलाक के बाद पत्नी को मिलनेवाला गुजारा भत्ता, अगर बच्चे है तो तलाक के बाद वो बच्चे किसके साथ रहेंगे। माता-पिता या पति के मृत्यु के बाद उनकी संपत्ति का बंटवारा कैसे होगा। इस संपत्ति में किसे कितना अधिकार मिलेगा। बच्चों को गोद लेने का कानून क्या होगा। और गोद लिए गए बच्चों के और उसे गोद लेनेवाले माता-पिता के क्या अधिकार होंगे। और अगर कोई व्यक्ति बिना अपने वसीयत लिखे मर जाएं तो उसकी संपत्ति में किसका कितना हक होगा। ये सारे फैसले सिविल लॉव्स के हिसाब से लिए जाते है।
अगर भारत में इस तरह के सिविल मामलों के निपटारे के लिए कोई एक कानून होता तो शायद इस पर कोई विवाद ही नहीं होता। लेकिन भारत में आज की जो स्थिति है वो बहुत अलग है। दरअसल भारत में शादी, तलाक और संपत्ति जैसे मामलों के लिए हिन्दू, सिख, जैन और बौद्ध धर्म के लोग एकसमान कानून के दायरे में आते है। लेकिन इन्हीं मामलों के निपटारे के लिए भारत में मुस्लिम, ईसाई, परसी और यहूदी धर्म के लोगों के पास अपने पर्सनल लॉझ है। पर्सनल लॉ का मतलब उन कानूनों से है जो व्यक्तिगत के हिसाब से चलते है। जैसे अगर कोई व्यक्ति मुस्लिम है तो उसकी शादी, तलाक और संपत्ति से जुड़े मामले का निपटारा मुस्लिम पर्सनल लॉझ के हिसाब से होगा। और अगर कोई व्यक्ति ईसाई, पारसी या यहूदि धर्म से है तो इन धर्मों में ऐसे मामलों का निपटारा उनके धर्म के पर्सनल लॉ के हिसाब से होगा। यानी पर्सनल लॉ किसी व्यक्ति की पहचान उसके धर्म और उसके धर्म में जो नियम कानून बनाए गए है उसके हिसाब से चलता है। संविधान के हिसाब से नहीं चलता है।
भारत पूरी दुनिया में शायद एकलौता ऐसा धर्मनिरपेक्ष देश है यानी जो अपने आप को धर्मनिरपेक्ष भी कहता है और कानून ही धर्म के हिसाब से बंटा हुआ है। ये एक तरफ से भेदभाव की माना जाएगा। जैसे- हिन्दू, सिख, जैसे और बौद्ध धर्म के लोग एक से ज्यादा विवाह नहीं कर सकते। और अगर वो दूसरी शादी करते है तो ये गैरकानूनी मानी जाती है। इन धर्मों में यदि कोई व्यक्ति अपनी पहली पत्नी को तलाक दिए बिना दूसरी शादी कर लेता है तो इसे अपराध माना जाता है। और ऐसे मामलों में 10 साल की जेल की सजा हो सकती है। जबकि इस्लाम धर्म में ऐसा बिल्कुल नहीं है। मुस्लिम पर्सनल laws के मुताबिक एक व्यक्ति बिना तलाक लिए ही चार शादियाँ कर सकता है। तो भारत में इसी देश में रहनेवाले दो नागरिक है एक वो जो बिना बिना तलाक दिए दूसरी शादी करता है तो वो अपराधी माना जाएगा उसे जेल होगी। वहीं दूसरा व्यक्ति जो 4 शादियाँ कर सकता है। इसी तरह हिन्दू, सिख जैन और बौद्ध धर्म में लड़कियों को 18 साल की उम्र में बालिग माना जाता है। और अगर इससे पहले किसी लड़की का विवाह कराया गया तो इसे गैरकानूनी माना जाता है। और इस पर कानूनी कार्यवाही हो सकती है।
लेकिन इस्लाम धर्म में ऐसा नहीं है। मुस्लिम पर्सनल laws के मुताबिक 15 साल के उम्र में ही मुस्लिम लड़की की शादी हो सकती है। और इसे गैरकानूनी नहीं माना जाता है। मुस्लिम पर्सनल लॉ में पहले तीन तलाक की भी व्यवस्था थी इसमें पति तीन बार तलाक, तलाक, तलाक कहकर अपनी पत्नी से अलग हो जाता था। लेकिन मोदी सरकार इस तीन तलाक को समाप्त कर चुकी है। हिन्दू, सिख, जैन और बौद्ध धर्म में तलाक के बाद पत्नी अपने पति से गुजारा भत्ता मांग सकती है। लेकिन मुस्लिम पर्सनल लॉ में इसे लेकर अब भी स्पष्ट प्रावधान नहीं है। आज अगर किसी मुस्लिम महिला का तलाक होता है, तो तलाक के 4 महीने 10 दिन तक मुस्लिम पुरुष अपनी पत्नी को थोड़ा बहुत गुजारा देते है लेकिन उसके बाद गुजारा भत्ता को लेकर कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है। जबकि हिन्दू धर्म में महिलाओं को तलाक के बाद गुजारा भत्ता मांगने का पूरा अधिकार दिया गया है।
इसी तरह हिन्दू धर्म में महिलाओं को अपने पिता और पति के संपत्ति में बराबर का अधिकार मिलता है। और विधवा महिला को भी उसके पति के संपत्ति में बराबर का अधिकार होता है लेकिन इस्लाम धर्म में ऐसा नहीं है। मुस्लिम पर्सनल लॉ में बेटों की तुलना में बेटियों की अपने माता-पिता की संपत्ति में आधा अधिकार ही होता है। लेकिन हिन्दू, सिख, जैन और बौद्ध धर्म में बेटे और बेटी को अपने माता-पिता की संपत्ति में बराबर का अधिकार मिलता है और ये अधिकार कानून देता है। लेकिन यही कानून और संविधान मुस्लिम परिवारों पर नहीं चलता। इसके अलावा मुस्लिम पर्सनल लॉ में ये भी बताया गया है कि किसी भी बच्चे को जन्म के साथ अपने परिवार की पैतृक संपत्ति में कोई अधिकार नहीं मिलता। ये अधिकार उन्हें तभी मिलता है जब परिवार में पिता या माँ में से किसी एक की मृत्यु हो जाएं और उनकी मृत्यु के बाद उनकी संपत्ति का बंटवारा होता है।
जबकि हिन्दू धर्म में अगर किसी व्यक्ति पुरुष को शादी के बाहर किसी दूसरी महिला से बच्चे पैदा होते है। तो उन बच्चों का अपने पिता की संपत्ति में बराबर का अधिकार होता है। लेकिन ईसाई पर्सनल लॉ में ऐसे बच्चों को पिता की संपत्ति में कोई भी अधिकार नहीं मिलता। हिन्दू धर्म में अगर कोई महिला तलाक लेने के बाद फिर से अपने पूर्व पति के साथ रिश्ता शुरू करना चाहती है तो वो दुबारा विवाह करके ऐसा कर सकती है। लेकिन इस्लाम में ऐसा बिल्कुल नहीं है। मुस्लिम पर्सनल लॉ में मुस्लिम महिला को ऐसा करने के लिए निकाह हालाला करना होता है यानि उसे पहले किसी और से निकाह करना होता है। और फिर उसे तलाक देने के बाद वह अपने पूर्व पति के साथ दोबारा रिश्ते में आ सकती है। मुस्लिम पर्सनल लॉ में ये भी बताया गया है कि एक मुस्लिम पुरुष का निकाह एक मुस्लिम महिला से होता है। और वो चाहे तो ईसाई और यहूदी धर्म की महिला से भी निकाह कर सकता है। लेकिन यदि कोई मुस्लिम पुरुष किसी हिन्दू या दूसरे धर्म के महिला से निकाह करता है तो ये निकाह मान्य नहीं होगा। शर्त जब तक वो गैर मुस्लिम लड़की अपना धर्म छोड़ कर इस्लाम धर्म को नहीं अपनाएगी। तब तक वो विवाह मान्य होगा ही नहीं।
इन सारे बातों से स्पष्ट है कि हमारे देश में अलग-अलग धर्मों के अलग-अलग होने से लोगों के बीच एक समानता कानून में नहीं रह गई है। और इस देश में हिन्दू महिलाओं को जो बराबरी के अधिकार मिल रही है वहीं अधिकार मुस्लिम महिलाओं को नहीं मिल रहे है। जिससे ये पता चलता है कि ये एक तरह का भेदभाव है जो यूनिफ़ार्म सिविल कोड के जरिए समाप्त हो सकता है।
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