प्रशांत कारुलकर
76 वें सेना दिवस के पावन अवसर पर आज हम राष्ट्र के एक ऐसे नायक को याद कर रहे हैं, जिसका नाम सुनते ही भारत की वीरता की गाथा आंखों के सामने घूमने लगती है – फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ। वह ‘सैम बहादुर’ के नाम से मशहूर हुए, जिनके नेतृत्व में भारतीय सेना ने 1971 के युद्ध में पाकिस्तान को धूल चटा दी और एक स्वतंत्र राष्ट्र – बांग्लादेश का जन्म हुआ।
सैम का जीवन ही रोमांच और राष्ट्रभक्ति का मिश्रण था। पंजाब के अमृतसर में जन्मे सैम, डॉक्टर बनना चाहते थे लेकिन नियति ने उन्हें युद्ध की राह पर चलने को प्रेरित किया। द्वितीय विश्वयुद्ध से लेकर १९७१ तक पांच युद्धों में उन्होंने अपने पराक्रम का लोहा मनवाया। बर्मा अभियान से लेकर पूर्वी पाकिस्तान के युद्धक्षेत्र तक, सैम का हौसला और रणनीतिक चातुर्य सदैव भारतीय सेना का मार्गदर्शन करता रहा।
उनके सफल नेतृत्व का सबसे बड़ा उदाहरण है १९७१ का युद्ध। उनके संयमित स्वभाव और तेज फैसलों ने युद्ध का रुख भारत की ओर मोड़ दिया। “यदि पांच दिन में ढाका नहीं लिया, तो मैं इस्तीफा दे दूंगा,” का उनका ऐतिहासिक बयान आज भी सैनिकों को प्रेरित करता है।
लेकिन सैम बहादुर सिर्फ एक योद्धा नहीं थे। वह अपने सैनिकों का सच्चा हितैषी थे। उनकी सख्ती छवि के पीछे सैनिकों के प्रति गहरा स्नेह छिपा हुआ था। उनके अनोखे हास्य-व्यंग्य सेना के वातावरण को हल्का करते थे। उनकी खास “सैम कैप” आज भी भारतीय सेना की पहचान बन चुकी है।
फील्ड मार्शल का पद पाने वाले पहले भारतीय, सैम मानेकशॉ केवल एक सैनिक ही नहीं, बल्कि एक राष्ट्रीय नायक थे। उनकी विनम्रता, साहस और नेतृत्व क्षमता भारत के इतिहास में सदैव स्वर्ण अक्षरों में लिखी रहेगी।
इस सेना दिवस पर, हम सैम मानेकशॉ समित उन सभी वीर जवानों को नमन करते हैं, जिनके नाम इतिहास की किताबों में भले न दर्ज हों, लेकिन उनकी कुर्बानी हर तिरंगे में, हर सीमा पर गूंजती है। वे अनाम सैनिक हैं, जिन्होंने मातृभूमि की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी।
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