144 वर्ष बाद प्रयागराज में ही मनाया जाता है पूर्ण महाकुंभ – ज्योतिष गुरु पं. अतुल शास्त्री

भारत में यह मेला बहुत अनूठा है,जिसमें पूरी दुनिया से लोग आते हैं और पवित्र नदी में स्नान करते हैं। इसका अपना ही धार्मिक महत्व है और यह संस्कृति का भी एक महत्वपूर्ण प्रतीक माना जाता है| यह मेला लगभग 48 दिनों तक चलता है|

Maha-Kumbh-2025-Prayagraj

महाकुंभ केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति और आध्यात्मिकता का जीवंत संगम है, जो लोगों को अपनी आस्था को पुनः जागृत करने और ईश्वर के निकटता का अहसास दिलाने का अवसर प्रदान करता है। प्रयागराज में महाकुंभ 2025 का यह आयोजन सभी श्रद्धालुओं के लिए एक अविस्मरणीय अनुभव बनने जा रहा है, जो आस्था, एकता और श्रद्धा के इस अद्वितीय पर्व में भाग लेकर आत्मिक शांति का अनुभव करायेगा।

इस बार 144 वर्ष पूर्ण करके प्रयागराज में महाकुंभ की शुरुआत होंगी| 13 जनवरी 2025 को पौष पूर्णिमा स्नान के साथ यह प्रारंभ होगा और इसका समापन 26 फरवरी 2025 को महाशिवरात्रि के अंतिम स्नान के साथ होगा। कुंभ मेले में, पहले स्नान का नेतृत्व संतों द्वारा किया जाता है, जिसे कुंभ के शाही स्नान के रूप में जाना जाता है और यह सुबह 3 बजे शुरू होता है।संतों के शाही स्नान के बाद आम लोगों को पवित्र नदी में स्नान करने की अनुमति मिलती है।

हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, यह माना जाता है कि जो इन पवित्र नदियों के जल में डुबकी लगाते हैं, वे अनंत काल तक धन्य हो जाते हैं. यही नहीं, वे पाप मुक्त भी हो जाते हैं और उन्हें मुक्ति के मार्ग की ओर ले जाता है। भारत में यह मेला बहुत अनूठा है,जिसमें पूरी दुनिया से लोग आते हैं और पवित्र नदी में स्नान करते हैं। इसका अपना ही धार्मिक महत्व है और यह संस्कृति का भी एक महत्वपूर्ण प्रतीक माना जाता है| यह मेला लगभग 48 दिनों तक चलता है|

मुख्य रूप से दुनिया भर से साधु, संत, तपस्वी, तीर्थयात्री, इत्यादि भक्त इसमें भाग लेते हैं। कुंभ मेला दो शब्दों कुंभ और मेला से बना है। कुंभ नाम अमृत के अमर पात्र या कलश से लिया गया है, जिसे देवता और राक्षसों ने प्राचीन वैदिक शास्त्रों में वर्णित पुराणों के रूप में वर्णित किया था। मेला, जैसा कि हम सभी परिचित हैं, एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है ‘सभा’ या ‘मिलना’। 

हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, कुंभ मेला 12 वर्षों के दौरान चार बार मनाया जाता है। कुंभ मेले का आयोजन 4 तीर्थ स्थलों में होता है। ये स्थान हैं उत्तराखंड में गंगा नदी पर हरिद्वार, मध्य प्रदेश में शिप्रा नदी पर उज्जैन, महाराष्ट्र में गोदावरी नदी पर नासिक और उत्तर प्रदेश में गंगा, यमुना और सरस्वती तीन नदियों के संगम पर प्रयागराज। कुंभ मेले का पहला लिखित प्रमाण भागवत पुराण में उल्लिखित है। साथ ही  समुद्र मंथन के बारे में भागवत पुराण, विष्णु पुराण, महाभारत और रामायण में भी उल्लेख किया गया है।  

ऐसा माना जाता है कि शंकराचार्य ने इसकी शुरुआत की थी और कुछ कथाओं के अनुसार कुंभ की शुरुआत समुद्र मंथन से ही हो गई थी। ऐसा कहा जाता है कि महर्षि दुर्वासा के श्राप के कारण जब इंद्र और देवता कमजोर पड़ गए, तब राक्षस ने देवताओं पर आक्रमण करके उन्हें परास्त कर दिया था।ऐसे में सब देवता मिलकर विष्णु भगवान के पास गए और सारा वृतांत सुनाया। तब भगवान ने देवताओं को दैत्यों के साथ मिलकर समुद्र यानी क्षीर सागर में मंथन करके अमृत निकालने को कहा। ये दूधसागर ब्रह्मांड के आकाशीय क्षेत्र में स्थित है। 

सारे देवता भगवान विष्णु जी के कहने पर दैत्यों से संधि करके अमृत निकालने के प्रयास में लग गए। जैसे ही समुद्र मंथन से अमृत निकला देवताओं के इशारे पर इंद्र का पुत्र जयंत अमृत कलश लेकर उड़ गये। इस पर गुरु शंकर के कहने पर दैत्यों ने जयंत का पीछा किया और काफी परिश्रम करने के बाद दैत्यों ने जयंत को पकड़ लिया और अमृत कलश पर अधिकार जमाने के लिए देव और राक्षसों में 12 दिन तक भयानक युद्ध चला रहा। 

ऐसा कहा जाता है कि इस युद्ध के दौरान पृथ्वी के चार स्थानों पर अमृत कलश की कुछ बूंदे गिरी थी। जिनमें से पहली बूंद प्रयाग में, दूसरी हरिद्वार में, तीसरी बूंद उज्जैन और चौथी नासिक में गिरी थी‌ इसीलिए इन्हीं चार जगहों पर कुम्भ मेले का आयोजन किया जाता है‌। अतुल शास्त्री ने बताया कि  देवताओं के 12 दिन, पृथ्वी पर 12 साल के बराबर होते हैं।इसलिए हर 12 साल में महाकुम्भ का आयोजन किया जाता है‌‌।अर्द्ध कुम्भ का आयोजन 6 वर्ष और पूर्ण कुम्भ का आयोजन 12 वर्षों के बाद किया जाता है| 

यह मेला दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक और संस्कृति का प्रतीक है. कुम्भ मेला 48 दिनों तक चलता है। किस स्थान पर कुंभ मेले का आयोजन किया जाएगा यह राशियों पर निर्भर करता है कुंभ मेले में सूर्य और बृहस्पति का खास योगदान माना जाता है। सारे नवग्रहों में से सूर्य, चंद्र, गुरु और शनि की भूमिका कुंभ में महत्वपूर्ण मानी जाती है। 

जब अमृत कलश को लेकर देवताओं और राक्षसों के बीच युद्ध चल रहा था तब कलश की खींचा तानी में चंद्रमा ने अमृत को बहने से बचाया, गुरु ने कलश को छुपाया था, सूर्य देव ने कलश को फूटने से बचाया और शनि ने इंद्र के कोप से रक्षा की। इसीलिए ही तो जब इन ग्रहों का योग संयोग एक राशि में होता है तब कुंभ मेले का आयोजन होता है। जब सूर्य एवं बृहस्पति एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करते हैं तभी कुंभ मेले को मनाया जाता है और इसी आधार पर स्थान ओत तिथि निर्धारित की जाती है।

जब बृहस्पति वृषभ राशि में प्रवेश करते हैं और सूर्य मकर राशि में तब कुंभ मेले का आयोजन प्रयागराज में किया जाता है। जब सूर्य मेष राशि और बृहस्पति कुंभ राशि में प्रवेश करते हैं तब कुंभ मेले का आयोजन हरिद्वार में किया जाता है।जब सूर्य और बृहस्पति का सिंह राशि में प्रवेश होता है तब यह महाकुंभ मेला नासिक में मनाया जाता है।जब बृहस्पति सिंह राशि में और सूर्य देव मेष राशि में प्रवेश करते हैं तब कुंभ मेले का आयोजन उज्जैन में किया जाता है।  

बता दें कि जब सूर्य देव सिंह राशि में प्रवेश करते हैं, इसी कारण उज्जैन, मध्यप्रदेश में जो कुंभ मनाया जाता है उसे सिंहस्थ कुंभ कहते हैं। हर तीसरे वर्ष कुंभ का आयोजन होता है। गुरु ग्रह एक राशि में एक साल तक रहता है और हर राशि में जाने में लगभग 12 वर्षों का समय लग जाता है। इसीलिए हर 12 साल बाद उसी स्थान पर कुंभ का आयोजन किया जाता है। निर्धारित चार स्थानों में अलग-अलग स्थान पर हर तीन साल में कुंभ लगता है। 

144 वर्ष बाद यहां पर महाकुंभ का आयोजन होता है। यह केवल प्रयागराज में आयोजित किया जाता है। यह प्रत्येक 144 वर्षों में या 12 पूर्ण कुंभ मेले के बाद आता है‌। यह हर 12 साल में आता है। मुख्य रूप से भारत में 4 कुंभ मेला स्थान यानि प्रयागराज, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में आयोजित किए जाते हैं| 

यह हर 12 साल में इन 4 स्थानों पर बारी-बारी आता है। आधा कुंभ मेला जो भारत में हर 6 साल में केवल दो स्थानों पर होता है यानी हरिद्वार और प्रयागराज। चार अलग-अलग स्थानों पर राज्य सरकारों द्वारा हर तीन साल में आयोजित किया जाता है लाखों लोग आध्यात्मिक उत्साह के साथ भाग लेते हैं|

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