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Tuesday, April 22, 2025
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इलाहाबाद हाईकोर्ट का अजीब फैसला:बलात्कार के आरोपी को जमानत,पीड़िता पर ही उठाई उंगली!

"...यह भी निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि उसने खुद मुसीबत को आमंत्रित किया और इसके लिए वह जिम्मेदार भी थी।”

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इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक हालिया फैसले ने पूरे देश में हैरानी और गुस्से की लहर दौड़ा दी है। बलात्कार के एक गंभीर मामले में कोर्ट ने आरोपी को जमानत देते हुए न केवल उसे राहत दी, बल्कि पीड़िता को ही “अपनी स्थिति के लिए जिम्मेदार” ठहराया। फैसले में की गई टिप्पणियों ने न्याय व्यवस्था की संवेदनशीलता और लैंगिक सोच पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं।

मामला सितंबर 2024 का है। नोएडा स्थित एक प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी की छात्रा ने दिल्ली के हौज खास इलाके में बलात्कार का आरोप दर्ज कराया था। शिकायत के अनुसार पीड़िता दोस्तों के साथ एक बार में गई थी, जहां उसकी मुलाकात आरोपी से हुई। शराब के नशे में होने के कारण वह ठीक से चल नहीं पा रही थी, ऐसे में आरोपी उसे अपने रिश्तेदार के फ्लैट में ले गया, जहां कथित रूप से उसके साथ दो बार बलात्कार किया गया।

न्यायमूर्ति संजय कुमार सिंह की पीठ ने इस मामले की सुनवाई के दौरान कहा, “इस न्यायालय का विचार है कि यदि पीड़िता के आरोप को सच मान भी लिया जाए, तो यह भी निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि उसने खुद मुसीबत को आमंत्रित किया और इसके लिए वह जिम्मेदार भी थी।” कोर्ट ने मेडिकल रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा कि भले ही हाइमन फटा हुआ पाया गया, पर डॉक्टर ने यौन उत्पीड़न की पुष्टि नहीं की। कोर्ट ने इन्हीं तथ्यों के आधार पर आरोपी को जमानत दे दी।

इस फैसले के बाद सोशल मीडिया पर तीखी प्रतिक्रिया देखने को मिली। कई यूज़र्स ने इसे न्यायपालिका की “पीड़िता-शर्मिंदा करने वाली मानसिकता” करार दिया। एक यूज़र ने लिखा, “यह फैसला बताता है कि अगर आप लड़की हैं और बाहर जाती हैं, शराब पीती हैं, तो आपके साथ बलात्कार हो भी जाए, तो आप ही दोषी हैं।” एक अन्य ने कहा, “इस तरह के फैसले बलात्कार पीड़िताओं को चुप रहने के लिए मजबूर कर सकते हैं।”

इस फैसले के खिलाफ अब ऊपरी अदालत में अपील की जा सकती है, लेकिन जो बहस उठी है वह गहरी है—क्या हमारी न्याय व्यवस्था अब भी महिला के चरित्र, कपड़ों और जीवनशैली को आधार बनाकर न्याय का निर्धारण कर रही है?

इस पूरे घटनाक्रम ने साफ कर दिया है कि भारत में यौन अपराधों के मामलों में केवल कानूनी बदलाव नहीं, बल्कि न्यायिक दृष्टिकोण में भी बदलाव की सख्त जरूरत है।

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