आईआईटी मद्रास, यूनिवर्सिटी ऑफ विस्कॉन्सिन-मेडिसन और टेक्सास यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने मिलकर एक अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन किया, जिसमें ताजे पानी की झीलों में वायरस पर फोकस किया गया।
इस शोध में वैज्ञानिकों ने 20 साल से ज्यादा की अवधि में अमेरिका की विस्कॉन्सिन की झीलों से एकत्र 465 नमूनों का अध्ययन किया। यह पृथ्वी पर प्राकृतिक परिवेश में मौजूद वायरस पर सबसे लंबा डीएनए-आधारित अध्ययन है। उन्होंने मेटाजेनोमिक्स नाम की तकनीक से झीलों के सैंपल में मौजूद सभी डीएनए का विश्लेषण किया और मशीन लर्निंग की मदद से 13 लाख वायरस जीनोम रिकंस्ट्रक्ट किए।
इस अध्ययन से शोधकर्ताओं को यह जानने में मदद मिली कि वायरस मौसम के साथ, दशकों के लंबे अंतराल में और पर्यावरण में होने वाले बदलावों के अनुरूप खुद को कैसे बदलते हैं।
नेचर माइक्रोबायोलॉजी जर्नल में प्रकाशित शोधपत्र में शोधकर्ताओं ने बताया, “वायरस मौसम के साथ बदलते हैं। इनमें से कई साल दर साल फिर से सामने आते हैं। कई वायरस हर साल एक निश्चित समय पर फिर से दिखाई देते हैं, जिससे उनके बारे में भविष्यवाणी करना संभव है।”
उन्होंने कहा, “वायरस अपने होस्ट से जीन ‘चुरा’ सकते हैं और उन्हें अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करते हैं। वायरस क्रमिक विकास की प्रक्रिया से गुजरते हैं और समय के साथ प्राकृतिक चयन की प्रक्रिया में कुछ जीन ज्यादा प्रभावी बनकर उभरते हैं।”
अध्ययन में पता चला कि वायरस सिर्फ बीमारी ही नहीं फैलाते, बल्कि प्रकृति के लिए भी फायदेमंद हैं। वे दूसरे जीवों के लिए भी मददगार होते हैं।
शोधकर्ताओं ने 578 ऐसे वायरल जीन का पता लगाया जो फोटोसिंथेसिस (पौधों द्वारा भोजन बनाने की प्रक्रिया) और मीथेन के उपयोग जैसे महत्वपूर्ण कामों में मदद करते हैं। ये वायरस प्राकृतिक प्रणालियों को स्वस्थ और स्थिर रखने में योगदान देते हैं।
आईआईटी मद्रास में विजिटिंग प्रोफेसर डॉ. कार्तिक अनंतरामन ने बताया, “कोविड-19 महामारी ने हमें दिखाया कि वायरस को ट्रैक करना कितना जरूरी है।
इसके अलावा, ताजे पानी की झीलों में वायरस का अध्ययन करने से हम पानी के संसाधनों, प्राकृतिक पर्यावरण और लोगों के स्वास्थ्य को बेहतर ढंग से प्रबंधित कर सकते हैं।
यह शोध नए तरीके सुझाता है, जैसे प्रदूषित झीलों को ठीक करने के लिए वायरस का उपयोग करके पर्यावरण का संतुलन बहाल करना।
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