भारत के संवैधानिक ढांचे की बुनियाद पर फिर एक बार सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट शब्दों में मोहर लगाई है—कानून वही है जो संविधान से चलता है, न कि किसी काजी की अदालत या ‘शरिया कोर्ट’ से। सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में दिए गए एक महत्वपूर्ण निर्णय में दोहराया कि ‘दारुल कजा’ या ‘शरिया अदालत’ जैसे किसी भी धार्मिक निकाय को भारतीय कानून के तहत कोई आधिकारिक मान्यता प्राप्त नहीं है, और इनके दिए निर्देश महज़ राय हो सकते हैं, आदेश नहीं।
जस्टिस सुधांशु धूलिया और जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की पीठ ने यह फैसला एक महिला की याचिका पर सुनवाई के दौरान सुनाया, जिसने इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक फैसले को चुनौती दी थी। वह मामला एक फैमिली कोर्ट के निर्णय से जुड़ा था, जिसमें ‘काजी की अदालत’ में हुए समझौते के आधार पर भरण-पोषण की याचिका को खारिज कर दिया गया था।
सुप्रीम कोर्ट ने न केवल इस निर्णय को असंवैधानिक ठहराया, बल्कि उस बुनियादी सिद्धांत को फिर से रेखांकित किया कि कोई भी गैर-सरकारी निकाय—धार्मिक हो या सामाजिक—भारत के नागरिकों पर अपनी शर्तें थोप नहीं सकता। कोर्ट ने 2014 में दिए गए अपने ऐतिहासिक निर्णय ‘विश्व लोचन मदन बनाम भारत सरकार’ की याद दिलाते हुए कहा कि “शरिया अदालतें या उनके फतवे भारतीय कानून में बाध्यकारी नहीं माने जा सकते।”
मामले की पृष्ठभूमि में महिला का विवाह 2002 में हुआ था, जो दोनों की दूसरी शादी थी। ‘काजी की अदालत’ और बाद में ‘दारुल कजा’ में तलाक की कार्यवाही चली, लेकिन महिला की भरण-पोषण की याचिका को फैमिली कोर्ट ने इस आधार पर खारिज कर दिया कि वह स्वयं घर छोड़कर गई थी और दहेज की मांग संभव नहीं थी। सुप्रीम कोर्ट ने इसे अनुमान पर आधारित और विधि के खिलाफ माना।
अब, सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए फैसला पलटा है कि केवल किसी ‘समझौता डीड’ या धार्मिक निकाय के दस्तावेज के आधार पर अदालतें अंतिम निष्कर्ष नहीं निकाल सकतीं। कोर्ट ने पति को आदेश दिया कि वह याचिका दायर करने की तिथि से प्रति माह 4,000 रुपए पत्नी को भरण-पोषण के रूप में दे।
यह फैसला न केवल महिला के पक्ष में न्याय की पुनर्प्रतिष्ठा है, बल्कि उन तमाम लोगों के लिए चेतावनी भी है जो धार्मिक संस्थाओं को न्यायिक विकल्प समझ बैठते हैं। धर्म की आड़ में कानून का दरवाज़ा बंद नहीं किया जा सकता। यह देश संविधान से चलता है, और वही अंतिम आदेश है।
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