जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए भीषण आतंकी हमले के दिन जब पूरा देश शोक की चादर में लिपटा था, उसी दिन शिवसेना (यूबीटी) प्रमुख उद्धव ठाकरे का यूरोप यात्रा पर रवाना होना अब एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा बन गया है। शिवसेना सांसद मिलिंद देवड़ा, जो हाल ही में मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाले गुट में शामिल हुए हैं, ने ठाकरे पर कड़ी आलोचना करते हुए कहा कि “जब देश शोक मना रहा था, ठाकरे परिवार छुट्टियों पर था।”
22 अप्रैल को हुए बैसरन घाटी के हमले में 26 निर्दोष लोगों की जान चली गई, और यह घटना पुलवामा के बाद घाटी में सबसे घातक हमला मानी जा रही है। आतंकवादियों की इस निर्ममता की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर निंदा हुई, परंतु उस दिन ठाकरे के यूरोप रवाना होने की खबर ने उनकी राजनीतिक संवेदनशीलता पर सवाल खड़े कर दिए हैं।
मिलिंद देवड़ा ने एक्स (पूर्व ट्विटर) पर तीखी टिप्पणी करते हुए लिखा, “भूमिपुत्रों से लेकर भारत के पर्यटकों तक – ठाकरे कितने गिर गए हैं। जब पहलगाम में गोलियां चल रही थीं, तब वे यूरोप में छुट्टियां मना रहे थे। महाराष्ट्र दिवस पर वह बिना कुछ कहे गायब हो गए। कोई बयान नहीं। कोई एकजुटता नहीं। कोई शर्म नहीं।”
उन्होंने ठाकरे की अनुपस्थिति की तुलना डिप्टी सीएम एकनाथ शिंदे की सक्रियता से करते हुए कहा कि “महाराष्ट्र को छुट्टी मनाने वाले अंशकालिक नेताओं की नहीं, ड्यूटी पर तैनात योद्धाओं की जरूरत है।”
इस विवाद ने और तूल पकड़ा जब ठाकरे 65वें महाराष्ट्र स्थापना दिवस समारोह में भी नदारद रहे। इस मौके पर उनकी गैरहाजिरी को राज्य के सांस्कृतिक गौरव के प्रति उपेक्षा के तौर पर देखा जा रहा है। भाजपा मुंबई प्रमुख और संस्कृति मंत्री आशीष शेलार ने तो साफ शब्दों में कहा कि ठाकरे “मराठी अस्मिता को बचाने में असफल रहे हैं।”
यह मामला केवल राजनीतिक हमला भर नहीं, बल्कि राजनीतिक नैतिकता और जिम्मेदारी के बड़े प्रश्नों को जन्म देता है। जब पूरा देश शोक में डूबा था और महाराष्ट्र अपने गौरव दिवस पर उत्सव की तैयारी कर रहा था, तब विपक्ष के नेता का बिना बयान दिए विदेश यात्रा पर जाना न सिर्फ संवेदनहीनता की झलक देता है, बल्कि एक असहज चुप्पी को भी जन्म देता है।
शिवसेना नेता संजय निरुपम ने भी तीखा प्रहार करते हुए कहा, “जब अपनी जान गंवाने वालों को श्रद्धांजलि देने का समय है, तब ठाकरे परिवार विदेश में छुट्टियां मना रहा है।”
राजनीति में आलोचना आम बात है, लेकिन जब वह जनता की भावनाओं और शोक के क्षणों से जुड़ जाए, तब वह सिर्फ हमला नहीं, बल्कि नेतृत्व की परीक्षा बन जाती है। उद्धव ठाकरे के लिए यह आलोचना केवल विरोधियों की बयानबाज़ी नहीं, बल्कि जनता के सामने एक बड़ा नैतिक सवाल है—क्या वह वास्तव में उस संवेदनशील नेतृत्व के मानदंड पर खरे उतर रहे हैं, जिसकी अपेक्षा एक क्षेत्रीय दल के मुखिया से की जाती है?
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