इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उत्तर प्रदेश में कथित सामूहिक धर्मांतरण के एक मामले में FIR रद्द करने से इनकार करते हुए कहा है कि जब कमजोर वर्गों को धार्मिक लालच देकर धर्मांतरण के लिए उकसाया जाता है, तो राज्य मूकदर्शक नहीं बना रह सकता। कोर्ट ने कहा कि इस तरह की गतिविधियां सामाजिक ताने-बाने और सार्वजनिक व्यवस्था को नुकसान पहुंचा सकती हैं।
न्यायमूर्ति विनोद दिवाकर की पीठ ने जौनपुर जिले के केराकत थाना क्षेत्र में दर्ज FIR को रद्द करने की याचिका को खारिज कर दिया। यह FIR वर्ष 2023 में चार आरोपियों के खिलाफ दर्ज की गई थी, जिन पर आरोप था कि वे पैसे और मुफ्त चिकित्सा सेवा का लालच देकर लोगों को ईसाई धर्म अपनाने के लिए प्रेरित कर रहे थे।
पुलिस के अनुसार, आरोपी जौनपुर के विक्रमपुर गांव स्थित एक चर्च में ग्रामीणों को संबोधित कर रहे थे। जैसे ही पुलिस चर्च में पहुंची, आयोजक और मौजूद लोग मौके से भागने लगे। पुलिस ने चर्च से बाइबल की कई प्रतियां, सैकड़ों पैम्पलेट, लिफाफे और कुछ वाद्य यंत्र जब्त किए।
हाईकोर्ट ने 7 मई 2025 को दिए अपने आदेश में स्पष्ट किया कि किसी धर्म को अन्य धर्मों की तुलना में नैतिक या आध्यात्मिक रूप से श्रेष्ठ मानना भारत की धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था के खिलाफ है। कोर्ट ने कहा कि उत्तर प्रदेश गैरकानूनी धर्मांतरण प्रतिषेध अधिनियम, 2021 का उद्देश्य धोखे, दबाव, प्रलोभन या जबरदस्ती के जरिए कराए जाने वाले धर्मांतरण को रोकना है।
मामले में याचिकाकर्ताओं ने दलील दी थी कि एफआईआर केवल “पीड़ित व्यक्ति” ही दर्ज करा सकता है, जबकि इस केस में थानेदार (SHO) ने FIR दर्ज की थी। कोर्ट ने इस पर कहा कि “पीड़ित व्यक्ति” शब्द की व्याख्या व्यापक तरीके से की जानी चाहिए और इसमें SHO भी शामिल हो सकता है, क्योंकि वह सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने का जिम्मेदार अधिकारी है।
कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 25 का हवाला देते हुए कहा कि धर्म को मानना, उसका अभ्यास करना और प्रचार करना नागरिकों का मौलिक अधिकार है, लेकिन यह अधिकार सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के अधीन है। कोर्ट ने जोर देकर कहा कि “स्वतंत्र रूप से” शब्द धर्म की स्वैच्छिक स्वीकृति को दर्शाता है, न कि लालच या दबाव का परिणाम।
कोर्ट ने याचिका खारिज करते हुए कहा कि मामले की गंभीरता को देखते हुए पुलिस जांच जरूरी है और यदि अभियुक्त न्यायिक प्रक्रिया में सहयोग नहीं करते हैं, तो निचली अदालत कानून के अनुसार आगे बढ़ सकती है। यह फैसला न केवल धार्मिक स्वतंत्रता की सीमा रेखा तय करता है, बल्कि यह भी स्पष्ट करता है कि जब सामाजिक रूप से कमजोर वर्गों को लक्षित कर धर्मांतरण की कोशिश की जाए, तो राज्य के लिए हस्तक्षेप करना आवश्यक हो जाता है।
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