फिल्म निर्देशक अनुराग कश्यप एक बार फिर विवादों में हैं। इस बार उन्होंने फुले फिल्म को लेकर उठे विवाद के बीच ब्राह्मण समुदाय को लेकर एक बेहद आपत्तिजनक टिप्पणी की है। सोशल मीडिया पर सामने आए स्क्रीनशॉट्स के अनुसार, जब एक यूज़र ने उनकी पोस्ट पर ब्राह्मणों का ज़िक्र किया, तो उन्होंने जवाब दिया, “Brahmins pe main mootunga… koi problem?”
यह अभद्र और नफ़रत से भरी हुई टिप्पणी सोशल मीडिया पर वायरल हो गई है और हर तरफ़ से आलोचना झेल रही है। हालांकि कश्यप ने संभवतः यह टिप्पणी डिलीट कर दी है, लेकिन अब बहुत देर हो चुकी है। 17 अप्रैल को अनुराग कश्यप ने इंस्टाग्राम पर एक लंबा पोस्ट लिखा, जिसमें उन्होंने फिल्म फुले की रिलीज़ में हो रही देरी पर नाराज़गी जताई। उन्होंने दावा किया कि महाराष्ट्र के कुछ ब्राह्मण संगठनों द्वारा फिल्म के कंटेंट को लेकर आपत्ति की जा रही है।
उन्होंने लिखा,“अब ये ब्राह्मण लोग को शर्म आ रही है या वो शर्म में मरे जा रहे हैं या फिर एक अलग ब्राह्मण भारत में जी रहे हैं जो हम देख नहीं पा रहे हैं, च****ा कौन है कोई तो समझाए।”
सेंसर बोर्ड और सिस्टम को “फक्ड अप” कहकर कश्यप ने दावा किया कि फुले, पंजाब 95, टीस, धड़क 2 जैसी फिल्मों को सिर्फ इसलिए रोका जा रहा है क्योंकि वे जातिवाद की “सच्चाई” दिखाती हैं। कश्यप का यह रवैया समाज में जाति-आधारित भेदभाव पर बहस को आगे नहीं ले जाता, बल्कि नफ़रत को बढ़ावा देता है। किसी एक समुदाय को “कायर”, “शर्मिंदा” कहने से न तो सुधार होगा और न ही न्याय मिलेगा।
अगर उन्होंने सच में लिखा कि “ब्राह्मण पे मैं mootunga…”, तो यह न केवल आपत्तिजनक है बल्कि भारत के संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ भी है।
यह वही अनुराग कश्यप हैं जिन्होंने पद्मावत के विरोध के दौरान राजपूतों को ‘हिंदू आतंकवादी’ कहा था। लेकिन जब उनकी अपनी फिल्म फुले का विरोध होता है, तो वे विरोध करने वालों को “कायर” कह देते हैं। सामाजिक न्याय के नाम पर इतनी घृणा? जब CAA के विरोध प्रदर्शन चल रहे थे, तो वे खुद उसमें शामिल हुए थे। लेकिन अब जब कोई और लोकतांत्रिक ढंग से विरोध कर रहा है, तो उन्हें “शर्मिंदा ब्राह्मण” और “कायर” कहा जा रहा है।
महाराष्ट्र में लंबे समय से ब्राह्मण समुदाय को सामाजिक और राजनीतिक रूप से हाशिये पर रखा गया है। 1948 में गांधी की हत्या के बाद चितपावन ब्राह्मणों के खिलाफ हिंसा हुई। आज, वही मानसिकता फिल्मों, सोशल मीडिया और राजनीति के ज़रिए फिर उभर रही है। तमिलनाडु में भी ब्राह्मणों के साथ ऐसा ही व्यवहार हुआ है — जनेऊ काटना, ब्राह्मण प्रतीकों का मज़ाक उड़ाना और खुलेआम ‘सनातन धर्म मिटाओ’ जैसे नारे देना आम हो गया है। DMK जैसी पार्टियां इसको खुलकर समर्थन देती हैं।
अगर अनुराग कश्यप की “ब्राह्मण पे मैं mootunga” वाली टिप्पणी तथाकथित ‘प्रगतिशील’ विचारधारा की पोल खोलती है जो आजकल नफ़रत को “सामाजिक न्याय” कहकर बेच रही है। जातिवाद का विरोध करना एक बात है, लेकिन एक संपूर्ण समुदाय को अपमानित करना — वह भी गाली-गलौज के साथ — न तो प्रगति है, न ही न्याय। कश्यप और उनके जैसे अन्य ‘क्रांतिकारी’ अगर सच में जातिवाद मिटाना चाहते हैं, तो सबसे पहले उन्हें अपनी नफ़रत से शुरुआत करनी होगी।
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