“फोन-ए-फ्रेंड” कार्ड अब फेल हो गया है। पाकिस्तान, जो हर बार संकट की घड़ी में अमेरिका की शरण में जाकर संकट टालने की कोशिश करता था, इस बार अकेला रह गया है। ऑपरेशन सिंदूर के बाद भारत के जवाबी सैन्य प्रहार के बीच अमेरिका ने पाकिस्तान को कोई ढांढस नहीं बंधाया, न कोई समर्थन दिया। उल्टा, वॉशिंगटन ने यह साफ कर दिया है कि यह लड़ाई अमेरिका की प्राथमिकता में नहीं है और भारत को आत्मरक्षा का पूरा अधिकार है।
1999 के कारगिल युद्ध से लेकर संसद पर हमले के बाद की सैन्य तैयारियों तक, पाकिस्तान की रणनीति हमेशा यही रही कि जब हालात हाथ से निकलने लगें तो अमेरिका के कंधे पर सिर रखकर ‘सेव मी’ की पुकार लगाई जाए। उस समय, अमेरिका ने अक्सर हस्तक्षेप किया, जैसे 1971 में USS Enterprise को बंगाल की खाड़ी भेजना या 2001 में राजनयिक दल भेजकर युद्ध रोकना। पर इस बार सब कुछ बदल गया है।
अमेरिकी उपराष्ट्रपति जेडी वांस ने Fox News से बातचीत में कहा, “हम सिर्फ इतना कर सकते हैं कि इन देशों से थोड़ी नरमी बरतने की अपील करें। लेकिन हम इस युद्ध में कूदने नहीं जा रहे, जो हमारे नियंत्रण से बाहर और अमेरिका की प्राथमिकता से परे है।”
इसी के साथ, अमेरिका की पूर्व राजनयिक और रिपब्लिकन नेता निक्की हेले ने भी भारत के आत्मरक्षा के अधिकार को जायज ठहराते हुए पाकिस्तान को फटकार लगाई। उन्होंने कहा, “पाकिस्तान को अब पीड़ित बनने का अधिकार नहीं है।” यह बयान भारत के पक्ष में वैश्विक नैरेटिव को और मजबूत करता है।
जहां भारत ने हाल के वर्षों में सर्जिकल स्ट्राइक (2016) और बालाकोट एयरस्ट्राइक (2019) जैसी कार्रवाइयों से यह संदेश दिया कि अब वह जवाबी नहीं, प्रतिरोधात्मक रणनीति अपनाएगा, वहीं पाकिस्तान अब भी पुराने फॉर्मूले पर चल रहा है—पहले उकसाओ, फिर अंतरराष्ट्रीय समुदाय की दया की उम्मीद करो।
लेकिन इस बार वह दया कहीं से नहीं आई। अमेरिका का रुख तटस्थ है, खाड़ी देश जैसे सऊदी अरब और यूएई भी या तो चुप हैं या भारत के पक्ष में नरम रवैया अपना रहे हैं। चीन, तुर्किये और अज़रबैजान जैसे कुछ सीमित मित्र ही अब पाकिस्तान के साथ हैं—वो भी कूटनीतिक स्तर पर।
पाकिस्तान की आंतरिक हालत भी किसी बड़े संघर्ष की इजाज़त नहीं देती। चरमराती अर्थव्यवस्था, खैबर पख्तूनख्वा और बलूचिस्तान में असंतोष, और अस्थिर राजनीतिक नेतृत्व के चलते पाकिस्तान की स्थिति बेहद जर्जर है। इसके बावजूद, अगर वो भारत से टकराव जारी रखता है, तो उसे बड़ा सैन्य और कूटनीतिक नुकसान झेलना पड़ सकता है।
अमेरिका का सीधा संकेत यही है—“अब अपनी लड़ाई खुद लड़ो।” और पाकिस्तान के पास अब न कोई फोन-ए-फ्रेंड ऑप्शन है, न कोई lifeline।
इस बार का युद्ध सिर्फ सीमाओं पर नहीं, पाकिस्तान की विदेश नीति की पुरानी मानसिकता पर भी है। और ये स्पष्ट है—अब वो दुनिया नहीं रही, जहां पाकिस्तान हर बार बड़ी ताकतों की छाया में खुद को बचा लेता था।
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