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पहलगाम पर कनाडा और UK के खोखले बयान; मुस्लिम तुष्टिकरण के बंधक कीर स्टार्मर और मार्क कार्नी?

मुस्लिम तुष्टिकरण की लाठी पकड़कर जो लोग 'मौखिक मानवाधिकार' के झंडाबरदार बने हैं, वे कश्मीरी हिंदुओं और गैर-मुस्लिम पर्यटकों की हत्या पर महज़ बयान देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझते हैं।

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जम्मू-कश्मीर की बैसरन घाटी में बहा मासूमों का खून अभी सूखा भी नहीं था, अस्थियां ठंडी नहीं हुई कि दुनिया की संवेदना की पॉलिटिक्स शुरू हो गई। 26 बेगुनाहों की हत्या के बाद जिस प्रकार कनाडा और ब्रिटेन ने अपनी प्रतिक्रियाएं दीं, उससे यह साफ हो गया कि कुछ देशों की ‘निंदा’ शब्दकोश में अब सिर्फ राजनीतिक औपचारिकता भर बची है।

कनाडा के प्रधानमंत्री मार्क कार्नी ने हमले के 36 घंटे बाद बयान दिया। उन्होंने लिखा कि “स्तब्ध हूं, निंदा करता हूं, संवेदना प्रकट करता हूं।” मगर इस दुख में न भारत का नाम था, न आतंकवाद की जड़ों में बैठा पाकिस्तान। यह ऐसा था जैसे किसी दूर-दराज देश में कोई घटना घटी हो, और बस औपचारिकता निभा दी गई हो। सवाल उठता है कि क्या भारत का नाम लेना अब कुछ पश्चिमी नेताओं के लिए ‘राजनीतिक जोखिम’ बन चुका है?

ब्रिटेन के प्रधानमंत्री कीर स्टार्मर ने भी बयान दिया पीएम मोदी से बात की, हमले की निंदा की। लेकिन उनके शब्दों में भी पाकिस्तान का नाम नदारद रहा। आतंक की फैक्ट्री की ओर उंगली उठाने से जैसे इन नेताओं के हाथ कांपने लगते हैं। जिस नरसंहार की जड़ मजहबी जहर से भरी थी, उसे ‘सामान्य आतंकी घटना’ की तरह पेंट किया गया।

दरअसल, कनाडा और ब्रिटेन जैसे देशों की यह “भयभीत तटस्थता” अब केवल नैतिक चूक नहीं, बल्कि वोटबैंक पॉलिटिक्स का परछाईं बन चुकी है। मुस्लिम तुष्टिकरण की लाठी पकड़कर जो लोग ‘मौखिक मानवाधिकार’ के झंडाबरदार बने हैं, वे कश्मीरी हिंदुओं और गैर-मुस्लिम पर्यटकों की हत्या पर महज़ बयान देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझते हैं।

यह हमला सिर्फ भारत पर नहीं, वैश्विक न्याय पर भी तमाचा था। धर्म के आधार पर जब लोगों को मारने या छोड़ने का फ़ैसला होता है, तो यह सिर्फ एक आतंकी घटना नहीं, मजहबी नरसंहार होता है। फिर भी जब दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र पर ऐसा हमला होता है और प्रतिक्रिया में न तो पीड़ित का नाम होता है, न अपराधी का – तो यह ‘डिप्लोमेसी’ नहीं, ‘डिस्ग्रेस’ है।

भारत अब इन खोखली संवेदनाओं से संतुष्ट नहीं हो सकता। हमें ऐसे साथी चाहिए जो न सिर्फ निंदा करें, बल्कि आतंकवाद की जड़ों – खासकर पाकिस्तान – पर खुलकर बोलने का साहस भी रखें। आतंक के खिलाफ लड़ाई में ‘मौन’ समर्थन अब पर्याप्त नहीं है।

कनाडा और ब्रिटेन को तय करना होगा कि वे आतंक के खिलाफ हैं या अपने ही वोटबैंक के बंधक। वरना अगली बार जब किसी निर्दोष का खून बहाया जाएगा, तो शायद उनकी चुप्पी और भी भारी पड़ेगी – इंसानियत पर भी और उनकी अपनी साख पर भी। अगली बार जब भारत से किसी मुद्दे पर समर्थन मांगा जाएगा तो अपेक्षा ऐसे ही किसी खोखलें बयान की रखनी होगी, जिसमें ‘डर, भयभीत, चिंतित’ जैसे शब्द होंगे।

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