सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान पीठ ने यह तय करने के लिए बुधवार को फैसला सुनाया कि क्या अदालतें 1996 के मध्यस्थता और सुलह कानून के तहत मध्यस्थ फैसलों में संशोधन कर सकती हैं या नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने 4:1 बहुमत से फैसला सुनाया कि अदालतें मध्यस्थता और सुलह पर 1996 के कानून के तहत मध्यस्थता फैसलों को संशोधित कर सकती हैं।
मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना की ओर से बहुमत से लिए गए फैसले में कहा गया है कि ऐसे फैसलों को संशोधित करने की शक्ति का प्रयोग अदालतों की ओर से सावधानी के साथ किया जाना चाहिए। पीठ में मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति बीआर गवई, न्यायमूर्ति संजय कुमार, न्यायमूर्ति केवी विश्वनाथन और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह शामिल हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने 19 फरवरी को मामले में अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था। इस फैसले का असर घरेलू और अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थ फैसलों पर पड़ेगा। मामले में 13 फरवरी को अंतिम सुनवाई शुरू हुई थी, जिसे इससे पहले 23 जनवरी को तीन जजों की पीठ ने बड़ी पीठ को भेजा था। सॉलिसिटर जनरल (एसजी) तुषार मेहता के अलावा वरिष्ठ वकील अरविंद दातार, डेरियस खंबाटा, शेखर नाफड़े, रितिन राय, सौरभ कृपाल और गौरव बनर्जी ने इस मामले में पक्ष रखा।
अरविंद दातार और उनकी टीम ने दलील दी कि अदालतों के पास (मध्यस्थता और सुलह अधिनियम की) धारा 34 के तहत मध्यस्थ फैसलों को रद्द करने का अधिकार है। अदालतें उन फैसलों में संशोधन भी कर सकती हैं, क्योंकि यह उनके विवेकाधिकार का हिस्सा है। वहीं दूसरे पक्ष के वकीलों ने कहा कि कानून में ‘संशोधन’ शब्द नहीं है, इसलिए अदालतों को ऐसा कोई अधिकार नहीं दिया जा सकता, जो लिखा ही नहीं है।
धारा 34 के अनुसार, मध्यस्थ फैसलों को प्रक्रिया में गड़बड़ी, सार्वजनिक नीति का उल्लंघन या अधिकार क्षेत्र की कमी जैसे कुछ सीमित कारणों के आधार पर ही रद्द किया जा सकता है। धारा 37 उन अपीलों से जुड़ी है, जो मध्यस्थता से जुड़े फैसलों के खिलाफ (जैसे कि फैसला रद्द न करने पर) अदालत में की जाती हैं। इन दोनों धाराओं का उद्देश्य अदालतों की भूमिका को सीमित करना है, ताकि मध्यस्थता प्रक्रिया तेज और प्रभावी रहे।
अक्षय तृतीया पर सोने की कीमत में गिरावट, बाजारों में चहलकदमी!