29.2 C
Mumbai
Saturday, May 17, 2025
होमदेश दुनियाSC: 1996 मध्यस्थता कानून के फैसलों को संशोधित कर सकती हैं अदालतें!

SC: 1996 मध्यस्थता कानून के फैसलों को संशोधित कर सकती हैं अदालतें!

सीजेआई खन्ना समेत चार न्यायाधीशों ने कहा कि न्यायालय के पास मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 34 और 37 के तहत मध्यस्थता फैसलों को संशोधित करने की सीमित शक्ति है।

Google News Follow

Related

सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान पीठ ने यह तय करने के लिए बुधवार को फैसला सुनाया कि क्या अदालतें 1996 के मध्यस्थता और सुलह कानून के तहत मध्यस्थ फैसलों में संशोधन कर सकती हैं या नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने 4:1 बहुमत से फैसला सुनाया कि अदालतें मध्यस्थता और सुलह पर 1996 के कानून के तहत मध्यस्थता फैसलों को संशोधित कर सकती हैं।

मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना की ओर से बहुमत से लिए गए फैसले में कहा गया है कि ऐसे फैसलों को संशोधित करने की शक्ति का प्रयोग अदालतों की ओर से सावधानी के साथ किया जाना चाहिए। पीठ में मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति बीआर गवई, न्यायमूर्ति संजय कुमार, न्यायमूर्ति केवी विश्वनाथन और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह शामिल हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने 19 फरवरी को मामले में अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था। इस फैसले का असर घरेलू और अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थ फैसलों पर पड़ेगा। मामले में 13 फरवरी को अंतिम सुनवाई शुरू हुई थी, जिसे इससे पहले 23 जनवरी को तीन जजों की पीठ ने बड़ी पीठ को भेजा था। सॉलिसिटर जनरल (एसजी) तुषार मेहता के अलावा वरिष्ठ वकील अरविंद दातार, डेरियस खंबाटा, शेखर नाफड़े, रितिन राय, सौरभ कृपाल और गौरव बनर्जी ने इस मामले में पक्ष रखा।

अरविंद दातार और उनकी टीम ने दलील दी कि अदालतों के पास (मध्यस्थता और सुलह अधिनियम की) धारा 34 के तहत मध्यस्थ फैसलों को रद्द करने का अधिकार है। अदालतें उन फैसलों में संशोधन भी कर सकती हैं, क्योंकि यह उनके विवेकाधिकार का हिस्सा है। वहीं दूसरे पक्ष के वकीलों ने कहा कि कानून में ‘संशोधन’ शब्द नहीं है, इसलिए अदालतों को ऐसा कोई अधिकार नहीं दिया जा सकता, जो लिखा ही नहीं है।

सॉलिसिटर जनरल मेहता ने कहा कि 1996 का कानून एक ‘पूर्ण और उद्देश्यपूर्ण’ कानून है, जो मध्यस्थता से जुड़े सभी पहलुओं को ध्यान में रखकर बनाया गया है। उन्होंने कहा कि इस कानून में संशोधन का अधिकार न होना एक जानबूझकर लिया गया विधायी निर्णय है।

धारा 34 के अनुसार, मध्यस्थ फैसलों को प्रक्रिया में गड़बड़ी, सार्वजनिक नीति का उल्लंघन या अधिकार क्षेत्र की कमी जैसे कुछ सीमित कारणों के आधार पर ही रद्द किया जा सकता है। धारा 37 उन अपीलों से जुड़ी है, जो मध्यस्थता से जुड़े फैसलों के खिलाफ (जैसे कि फैसला रद्द न करने पर) अदालत में की जाती हैं। इन दोनों धाराओं का उद्देश्य अदालतों की भूमिका को सीमित करना है, ताकि मध्यस्थता प्रक्रिया तेज और प्रभावी रहे।

 
यह भी पढ़ें-

अक्षय तृतीया पर सोने की कीमत में गिरावट, बाजारों में चहलकदमी!

लेखक से अधिक

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

The reCAPTCHA verification period has expired. Please reload the page.

हमें फॉलो करें

125,741फैंसलाइक करें
526फॉलोवरफॉलो करें
248,000सब्सक्राइबर्ससब्सक्राइब करें

अन्य लेटेस्ट खबरें