भारत ने स्वाधीनता पाने के बाद जब लोकतंत्र स्थापित किया उसी वक्त न्यायपालिका को स्वतंत्र और सुदृढ़ बनाने का फैसला लिया था। उसी समय न्यायपालिका को सशक्त करने के लिए, लोगों को कानून व्यवस्था- न्यायव्यवस्था सुचारु रूप से चालू रखने के लिए उसे संविधान का अर्थ लगाने का अधिकार दिया था। जब की यह अधिकार संसद ने सर्वोच्च न्यायपालिका को इसी उम्मीद से दिया था, की वो अर्थ जब लगाएंगे तो विवेक का इस्तेमाल करेंगे, देश के हित का विचार करेंगे। लेकीन इस अधिकार का दुरूपयोग हुआ है—और वो होते भी रहेगा।
जैसे भगवान महादेव ने गलती से वरदान में भस्मासुर को वरदान दे दिया था, की वो जिस किसी के सिर पर हाथ रखेगा, वो भस्मसात होगा और वरदान मिलते ही भस्मासूर महादेव के पिछे उन्हें ही भस्म करने दौड़ पड़ा था, उसी प्रकार से जिस संसद ने सर्वोच्च न्यायालय को अधिकार दिए उसी संसद के सिर पर हाथ रखने के कोशिश आज सर्वोच्च न्यायलय कर रहा है।
हाल ही में निशिकांत दुबे और उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने वो बातें बोली जो सभी देशवासियो के मन में थी। उन्होंने न्यायपालिका के ओवररिच की बात करते हुए प्रश्न उठाया —लोगों को आगाह किया की जुडिशियरी से इस तरह कार्यपालिका के कामों में हस्तक्षेप बड़ा ही घातक सिद्ध हो सकता है। उपराष्ट्रपति धनखड़ का मुद्दा तो बेहद साफ़ था, उन्होंने सर्वोच्च न्यायलय की ओर से महामहिम राष्ट्रपति को भेजे गए रीट ऑफ मेंडमस पर नाराजगी जताई थी। यह कितनी नासमझी की बात हो सकती है–की राष्ट्रपति को कोई आदेश दे ऐसा नहीं हो सकता—उन्हें तो कार्यपालिका भी केवल सलाह ही दे सकती है—उस प्रतिष्ठित पद को सर्वोच्च न्यायालय आदेश जारी करता है।
वहीं जब निशिकांत दुबे और विष्णु शंकर जैन कहते है की न्यायपालिका इस प्रकार से डबल स्टैंडर्ड चलाता है की हिंदुओ के मामलों में याचिकाओं को निचली अदालतों में भेजने की कोशिश होती है। लेकीन जब मामला मुस्लिम पक्ष से संबंधित हो तो बेंच उन मामलों पर संज्ञान लेने लगता है। यह कोई हैरानी की बात नहीं है—–इसके कई उदाहरण न्यायपालिका में मौजूद है। जब नब्बे के दशक में जम्मू कश्मीर में हिंदू समाज का नरसंहार हो रहा था, उस वक्त सुप्रीम कोर्ट ने कोई सुओ मोटो नहीं लिया। जब कश्मीरी हिंदू आज नरसंहार पर न्याय मांगने के लिए दरवाजा खटखटाने लगा तो इसी सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहकर मामला टाल दिया की मामला बहुत पुराना हो गया है। justice delayed is justice denied इस लाइन को शायद न्यायमूर्तियों ने बड़े अच्छे से रट लिया होगा, इसीलिए उन्होंने देरी से न्याय करने से बेहतर न्याय न करना ही सही समझा।
आज मुख्य न्यायाधीश कह रहें है —- वक्फ बाय यूजर बड़ा महत्वपूर्ण अध्याय लगता है। तो फिर न्यायलय ने संविधान का और कानून का तब अर्थ लगाना क्यों सही नहीं समझा जब वक्फ बोर्ड को गैरसंवैधानिक अधिकार दिए जा रहे थे। जब 2013 में वक्फ बोर्ड्स को ऐसे निरंकुश अधिकार दिए जा रहे थे की वो मांगे वो जमीन उनकी, तब सुप्रीम कोर्ट ने संज्ञान क्यों नहीं लिया, तब जुडिशियल रिव्यू क्यों नहीं किया गया—-जब वक्फ के मामलों को वक्फ ट्रिब्यूनल में ही रखने की बातें होने लगी तबी सुप्रीम कोर्ट को यह न्यायपालिका के अधिकारों का हनन समझ क्यों नहीं आया ?
आज जब बहुमत से चुनकर आयी एक सरकार इन असंवैधानिक और बेहद अन्यायी मामलों को सुलझा रही है तब सर्वोच्च न्यायालय को इसमें ज्यूडिशयल रिव्यू करना है। 1991 के प्लेसज ऑफ वर्शिप एक्ट के खिलाफ दायर की गई याचिकाएं आज भी सुप्रीम कोर्ट में पड़ी है लेकीन कोर्ट को उस पर संज्ञान लेने का समय नहीं मिल रहा है।
2012 में हिंदू मंदिरों के बोर्ड को सरकार से मुक्त कराने की मांग चल रही है—-लेकिन सुप्रीम कोर्ट को इस पर संज्ञान लेने के लिए कोई निश्चित मुहूरत नहीं मिल रहा है। कोर्ट ने मणिपुर में कुकी समुदाय की हिंसा पर अपना एक डेलीगेशन परिस्थिती देखने के लिए भेजा था। लेकीन वहीं पश्चिम बंगाल में कोई डेलीगेशन भेजने की योजना अभी तक नहीं बनी है।
कल पश्चिम बंगाल में राष्ट्रपति शासन लगवाने की एक महत्वपूर्ण याचिका लेकर विष्णु शंकर जैन जब सुप्रीम कोर्ट गए तब जस्टीस बी आर गवई की बेंच ने ताना मारते हुए कहा—हम पर तो कार्यपालिका में हस्तक्षेप करने के आरोप लगते है। यह ताना मानों स्कुल के बच्चे आपस में मारते है उस दर्जे का था। यानी पश्चिम बंगाल में इतनी भीषण परिस्थिती है की दंगाई एम्बुलन्स और अस्पताल तक को निशाना बना रहें है—उस समय कोर्ट अपने विवेक से निर्णय लेने के लिए पिछे हट रहा है। जब मुर्शिदाबाद के दंगो में स्वतंत्र जांच की मांग की गई कोर्ट ने ख़ारिज कर दी। यानि कुलमिलाकर सुप्रीम कोर्ट संसद और कार्यकारी नेताओं पर अपनी शक्ती चलाने की कोशिश कर रहा है।
यह सब करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में इतना आत्मविश्वास केवल उनके कोलिजियम व्यवस्था और महाभियोग की कठीन प्रक्रिया से आता है। इसी कॉलेजियम व्यवस्था को ख़त्म करने के लिए पहली बार जब पुरे संसद भवन ने एक साथ आकर NJAC का बिल पास करवाया तो उसे भी इन्होंने अनुच्छेद 142 का उपयोग कर ख़ारिज करवाया। यानी सर्वोच्च न्यायलय ने इस बात को साफ़ कर दिया की उन्हें न्यायपालिका में पारदर्शिता और जवाबदेही से परहेज है। उन्हें चाहिए अधिकारशाही उन्हें चाहिए वही कॉलेजियम सिस्टम जिसके जरिए भाई-भतीजे कोर्ट में जज बनें। बड़ी सैलरी, लम्बी छिट्टियां, चारों ओर सरकारी सुरक्षा-व्यवस्था, उंगली उठाने वाला कोई नहीं—किसी को जवाब देने की जरूरत नहीं–-जब चाहो तक तारीख को आगे धकेलो, जब चाहो जिसे चाहो आदेश दे दो, ऐसी मौज भारत के किसी भी विभाग में नहीं कटती जो उच्च न्यायलय और सर्वोच्च न्यायलय में कटती है– और अगर कहीं से जस्टिस यशवंत वर्मा की तरह आपका मामला खुल भी जाता है तो भी चिंता करने की जरूरत नहीं बाकि के न्यायाधीश मामले को रफा-दफा करने की पूरी कोशिश करेंगे। आज करीब सवा महीना हो चूका यशवंत वर्मा के घर में कमरा भरकर नोट पाए जाने के लिए—अभी तक एफआईआर तक नहीं हुई है इस केस में।
लेकीन जल्दी ही निशिकांत दुबे के खिलाफ मामला दर्ज भी हो सकता है और उन्हें न्यायलय के अवमान के लिए सजा भी हो सकती है। क्योंकि निशिकांत दुबे की गलती यही है की वो प्रशांत भूषण, कपिल सिब्बल, मुकुल रोहतगी, अभिषेक मनु सिंघवी नहीं है जिसके न्यायपालिका में सम्बन्ध हो–जिनका न्यायधिशो के साथ उठाना-बैठना हो। साथ ही इसीलिए कोर्ट उन्हें भी एक रुपये का दंड लगाकर मुक्त कर दे ऐसा सोचना ही गलत है। क्योंकि वो हिंदूओं के न्याय के पक्षधर है लेफ्टिस्टों की तरह रात के अंधेरें में आतंकी की फांसी पर रोक लगाने के लिए याचिका लेकर नहीं जाते।
सुप्रीम कोर्ट की कॉलेजियम पद्धति, महाभियोग की कठिनतम व्यवस्था और कोई जवाबदेही न होना ही उसकी शक्ति है। और इन्हीं शक्तियों के सहारे वो कार्यपालिका और संसद की बाह मरोड़ने की कोशश में है। भस्मासुर की तरह!
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