तमिलनाडु के डीएमके मंत्री ईवी वेलु ने संस्कृत भाषा और उससे जुड़ी परंपराओं का उपहास करते हुए एक नई बहस छेड़ दी है। शुक्रवार (4 जुलाई) को वेल्लोर में एक जनसभा को संबोधित करते हुए उन्होंने हिंदू विवाह समारोहों में बोले जाने वाले संस्कृत मंत्रों का मज़ाक उड़ाया और पूछा कि “आख़िर कौन समझता है ये सब?” उन्होंने यह भी सवाल उठाया कि संस्कृत के विकास के लिए केंद्र सरकार ने 2,500 करोड़ रुपये आवंटित किए हैं, जबकि तमिल भाषा के लिए केवल 167 करोड़ रुपये ही दिए गए।
ईवी वेलु ने व्यंग्यात्मक अंदाज में कहा, “शादी में संस्कृत में कुछ बोलते हैं, कौन समझता है वो सब? क्या दो प्रेमी संस्कृत में ‘आई-लव-यू’ कह सकते हैं? वो तमिल में कह सकते हैं, जो सबकी समझ में आती है।” उन्होंने इसे “जनता से जुड़ी ज़ुबान बनाम थोपे गए भाषा के पक्षपात” के रूप में प्रस्तुत किया।
वेलु ने आगे कहा कि तमिलनाडु जीएसटी (वस्तु एवं सेवा कर) में देश का दूसरा सबसे बड़ा योगदानकर्ता है, फिर भी राज्य की सांस्कृतिक और भाषाई पहचान के लिए पर्याप्त सहायता नहीं दी जाती। उन्होंने आरोप लगाया कि केंद्र सरकार तमिल की उपेक्षा कर सिर्फ एक सीमित वर्ग द्वारा बोले जाने वाली संस्कृत को बढ़ावा दे रही है। उन्होंने कहा, “हमसे जीएसटी में पैसे लेकर संस्कृत पर खर्च कर रहे हैं। 2,500 करोड़ रुपये एक ऐसी भाषा के लिए जो किसी को समझ ही नहीं आती, ये कैसी न्याय व्यवस्था है?”
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने भी बीते महीने केंद्र सरकार पर इसी मुद्दे को लेकर निशाना साधा था। उन्होंने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म X पर पोस्ट किया था, “संस्कृत को करोड़ों, तमिल और दक्षिण भारतीय भाषाओं को सिर्फ मगरमच्छ के आंसू! तमिल के लिए झूठा स्नेह, और सारा पैसा संस्कृत के लिए!” राज्य के शिक्षा मंत्री अनबिल महेश ने भी केंद्र सरकार की भाषा नीति की आलोचना करते हुए कहा था कि “भारत में छह शास्त्रीय भाषाएं हैं, लेकिन केंद्र सरकार केवल संस्कृत को ही बढ़ावा दे रही है। यह निरंतर भेदभाव है।”
ईवी वेलु के बयान ने एक बार फिर भाषायी असमानता, सांस्कृतिक पहचान और केंद्र-राज्य संबंधों को लेकर बहस को तेज कर दिया है। डीएमके सरकार जहां तमिल भाषा और संस्कृति की रक्षा के पक्ष में मजबूत जनमत तैयार कर रही है, वहीं केंद्र सरकार पर उत्तर भारत-केंद्रित भाषाई प्राथमिकता का आरोप लग रहा है। इस घटनाक्रम ने भाषा नीति, फंडिंग और भारतीय संघीय ढांचे में सांस्कृतिक समानता के मुद्दों को फिर से चर्चा के केंद्र में ला दिया है।
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