मध्य प्रदेश सरकार ने राज्य में स्थित 22,000 से अधिक सरकारी नियंत्रण वाले मंदिरों, मठों और धर्मशालाओं में एक अहम पहल की है। धार्मिक न्यास एवं धर्मस्व विभाग ने सभी जिलों के कलेक्टरों को निर्देश दिए हैं कि वे इन धार्मिक स्थलों का भौतिक सत्यापन करें और यह रिपोर्ट दें कि इनमें कहीं मुस्लिम, ईसाई या अन्य गैर-हिंदू धर्मावलंबी तो प्रशासनिक या धार्मिक कार्यों से नहीं जुड़े हैं।
इस पहल में पुजारी से लेकर ट्रस्ट सदस्यों, केयरटेकर और परिसर के सुरक्षा-कर्मियों तक—सभी की पहचान और धार्मिक पृष्ठभूमि की जांच होनी है। राज्य सरकार का कहना है कि यह कदम धार्मिक संस्थानों की गरिमा और परंपरा को बनाए रखने के उद्देश्य से उठाया गया है।
इस अभियान के पहले चरण में महाकालेश्वर मंदिर (उज्जैन), श्री सलकनपुर देवी मंदिर (सीहोर), शारदा देवी मंदिर (मैहर), खजराना गणपति मंदिर (इंदौर), ओंकारेश्वर मंदिर (खंडवा), रामराजा सरकार मंदिर (ओरछा), रतनगढ़ माता मंदिर (दतिया), मां बगुलामुखी मंदिर (नलखेड़ा) और पूर्व रियासतों के मंदिर (भोपाल, ग्वालियर, रीवा आदि) शामिल हैं।
मध्य प्रदेश में सरकारी संरक्षण में मौजूद 22,000 मंदिर-मठों में से 107 को तीर्थस्थल का दर्जा प्राप्त है और 1585 मंदिरों में सालाना धार्मिक मेले आयोजित होते हैं। इन मंदिरों की भूमि भी राजस्व रिकॉर्ड में मूर्तियों के नाम दर्ज है, जिससे ये “संधारित मंदिर” कहलाते हैं। अधिकांश मंदिरों में पारंपरिक पुजारियों की नियुक्ति होती है और उन्हें सरकार मानदेय भी देती है। धर्मशालाएं, दुकानें और कृषि भूमि जैसे संसाधनों का प्रबंधन संबंधित जिलों के कलेक्टर करते हैं।
सरकार भले ही इसे सांस्कृतिक संतुलन और परंपरा की रक्षा कह रही हो, लेकिन यह कदम निश्चित ही देशभर में एक व्यापक बहस को जन्म दे सकता है। क्या धार्मिक संस्थानों में धर्म के आधार पर कर्मचारियों की जांच जरूरी है? क्या इससे समावेशिता और संविधान प्रदत्त धार्मिक स्वतंत्रता प्रभावित होगी? या फिर यह धार्मिक स्थलों की आत्मा और सांस्कृतिक पहचान की रक्षा का एक प्रयास है?
धार्मिक न्यास विभाग द्वारा मांगी गई रिपोर्ट आने के बाद सरकार अगले कदम का फैसला लेगी। लेकिन यह स्पष्ट है कि राज्य सरकार अब धार्मिक आस्थाओं से जुड़े प्रशासनिक ढांचे को फिर से परिभाषित करने की दिशा में गंभीर है।
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